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अप॒ त्यं वृ॑जि॒नं रि॒पुं स्ते॒नम॑ग्ने दुरा॒ध्य॑म्। द॒वि॒ष्ठम॑स्य सत्पते कृ॒धी सु॒गम् ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apa tyaṁ vṛjinaṁ ripuṁ stenam agne durādhyam | daviṣṭham asya satpate kṛdhī sugam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑। त्यम्। वृ॒जि॒नम्। रि॒पुम्। स्ते॒नम्। अ॒ग्ने॒। दुः॒ऽआ॒ध्य॑म्। द॒वि॒ष्ठम्। अ॒स्य॒। स॒त्ऽप॒ते॒। कृ॒धि। सु॒ऽगम् ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:13 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन दूर करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (त्यम्) उस (दविष्ठम्) अतीव दूर (वृजिनम्) त्यागने (दुराध्यम्) वा दुःख से वश में करने योग्य (रिपुम्) विद्याशत्रु (स्तेनम्) चोर को (सुगम्) सुगम (कृधी) करो, हे (सत्पते) सत्य के पालनेवाले ! आप (अस्य) इसका (अप) दूरीकरण करो ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! तुम विद्या का अभ्यास कर शरीर और आत्मा के बल से युक्त होते हुए दुःसाध्य भी शत्रुओं को सुसाध्य अर्थात् उत्तमता से सूधे करो, जिससे वे दूर स्थित ही भय से सद्धर्म के अनुष्ठान करनेवाले हों ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के दूरीकरणीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्यं दविष्ठं वृजिनं दुराध्यं रिपुं स्तेनं सुगं कृधी। हे सत्पते ! त्वमस्याऽप नयनं कृधी ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अप) दूरीकरणे (त्यम्) तम् (वृजिनम्) वर्जनीयम् (रिपुम्) विद्याशत्रुम् (स्तेनम्) चोरम् (अग्ने) विद्वन् (दुराध्यम्) दुःखेन वशीकर्तुम् योग्यम् (दविष्ठम्) अतिशयेन दूरम् (अस्य) (सत्पते) सत्यस्य पालक (कृधी) कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सुगम्) सुष्ठु गच्छति यस्मिँस्तम् ॥१३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं विद्यामभ्यस्य शरीरात्मबलयुक्ताः सन्तो दुस्साध्यानपि शत्रून् सुसाध्यान् कुरुत यतस्ते दूरस्था एव भयेन सद्धर्मानुष्ठाना भवेयुः ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसा ! तू विद्येचा अभ्यास करून शरीर व आत्म्याचे बळ वाढव. असाध्य शत्रूंना वश कर. ज्यामुळे दूर असलेल्यांनीही भयाने सद्धर्माचे अनुष्ठान करावे. ॥ १३ ॥