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मि॒म्यक्ष॒ येषु॑ रोद॒सी नु दे॒वी सिष॑क्ति पू॒षा अ॑भ्यर्ध॒यज्वा॑। श्रु॒त्वा हवं॑ मरुतो॒ यद्ध॑ या॒थ भूमा॑ रेजन्ते॒ अध्व॑नि॒ प्रवि॑क्ते ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mimyakṣa yeṣu rodasī nu devī siṣakti pūṣā abhyardhayajvā | śrutvā havam maruto yad dha yātha bhūmā rejante adhvani pravikte ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒म्यक्ष॑। येषु॑। रो॒द॒सी। नु। दे॒वी। सिस॑क्ति। पू॒षा। अ॒भ्य॒र्ध॒ऽयज्वा॑। श्रु॒त्वा। हव॑म्। म॒रु॒तः॒। यत्। ह॒। या॒थ। भूम॑। रे॒ज॒न्ते॒। अध्व॑नि। प्रऽवि॑क्ते ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:50» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जनों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) मनुष्यो ! (येषु) जिन वायु आदि पदार्थों में (रोदसी) प्रकाश और भूमि (देवी) जोकि दिव्यगुणवाली हैं उनको (अभ्यर्धयज्वा) मुख्य के आधे में सङ्गत होनेवाला (पूषा) पुष्टि करनेवाला मेघ (सिषक्ति) सींचता है आप इससे (नु) शीघ्र (मिम्यक्ष) शीघ्र जाइये (यत्) जो (ह) निश्चय कर (भूमा) भूमि में वा (प्रविक्ते) प्रकर्षकर चलने योग्य (अध्वनि) मार्ग में (रेजन्ते) काँपते वा जाते हैं उनके (हवम्) शब्द को (श्रुत्वा) सुनकर उनको तुम (याथ) प्राप्त होओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! तुम सूर्य्य और पृथिवी के तुल्य प्रकाश और क्षमाशील होकर सबके प्रश्नों को सुनकर समाधान देओ, जैसे भूमि आदि लोक अपने-अपने मार्ग में नियम से जाते हैं, वैसे नियम से धर्ममार्ग में जाओ ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! येषु रोदसी देवी अभ्यर्धयज्वा पूषा सिषक्ति त्वमतो नु मिम्यक्ष यद्ये ह भूमा प्रविक्तेऽध्वनि रेजन्ते तेषां हवं श्रुत्वैतान् यूयं याथ ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मिम्यक्ष) तूर्णं गच्छ (येषु) वाय्वादिषु (रोदसी) प्रकाशभूमी (नु) (देवी) दिव्यगुणे (सिषक्ति) सिञ्चति (पूषा) पुष्टिकरो मेघः (अभ्यर्धयज्वा) आभिमुख्यस्यार्द्धे सङ्गन्ता (श्रुत्वा) (हवम्) शब्दम् (मरुतः) मनुष्याः (यत्) ये (ह) किल (याथ) गच्छथ (भूमा) भूमी। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रेजन्ते) कम्पन्ते गच्छन्ति वा (अध्वनि) मार्गे (प्रविक्ते) प्रकर्षेण चलितव्ये ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यूयं सूर्यपृथिवीवत्प्रकाशक्षमाशीला भूत्वा सर्वेषां प्रश्नाञ्छ्रुत्वा समाधत्त, यथा भूम्यादिलोकाः स्वस्वमार्गे नियमेन गच्छन्ति तथा नियमेन धर्ममार्गे गच्छत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! तुम्ही सूर्य व पृथ्वीप्रमाणे प्रकाशशील व क्षमाशील बनून सर्वांचे प्रश्न ऐकून समाधान करा. जसे भूमी इत्यादी गोल नियमपूर्वक आपापल्या मार्गाने जातात तसे नियमाने धर्ममार्गाने जा. ॥ ५ ॥