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प॒थस्प॑थः॒ परि॑पतिं वच॒स्या कामे॑न कृ॒तो अ॒भ्या॑नळ॒र्कम्। स नो॑ रासच्छु॒रुध॑श्च॒न्द्राग्रा॒ धियं॑धियं सीषधाति॒ प्र पू॒षा ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pathas-pathaḥ paripatiṁ vacasyā kāmena kṛto abhy ānaḻ arkam | sa no rāsac churudhaś candrāgrā dhiyaṁ-dhiyaṁ sīṣadhāti pra pūṣā ||

पद पाठ

प॒थःऽप॑थः। परि॑ऽपतिम्। व॒च॒स्या। कामे॑न। कृ॒तः। अ॒भि। आ॒न॒ट्। अ॒र्कम्। सः। नः॒। रा॒स॒त्। शु॒रुधः॑। च॒न्द्रऽअ॑ग्राः। धिय॑म्ऽधियम्। सी॒स॒धा॒ति॒। प्र। पू॒षा ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:49» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसका सेवन करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (पूषा) पुष्टि करनेवाला (कामेन) कामना से (पथस्पथः) मार्गों मार्गों को (परिपतिम्) स्वामी को छोड़ के वा सब ओर से स्वामी को और (वचस्या) वचन में उत्तम व्यवहारों को (कृतः) किये हुए (अर्कम्) सत्कार करने योग्य क्रियामय व्यवहार को (अभि, आनट्) सब ओर से व्याप्त होता है तथा (नः) हम लोगों के लिये (शुरुधः) शीघ्र रोकनेवाली (चन्द्राग्राः) जिनके तीर सुवर्ण उत्तम विद्यमान उनको (रासत्) देवे तथा (धियंधियम्) प्रज्ञा प्रज्ञा वा कर्म कर्म को (प्र, सीषधाति) अच्छे प्रकार सिद्ध करता है (सः) वह उपदेशकर्त्ता तथा न्याय करनेवाला हम लोगों का हो ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो तुमको सन्मार्ग दिखाकर दुष्ट मार्गों का निवारण कर सत्याचरण करनेवाले स्वामी का सेवन करा और दुष्टपति का निवारण कराके बुद्धि को बढ़ाता है, वही तुम लोगों को सत्कार करने योग्य होता है ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कः सेवनीय इत्याह ॥

अन्वय:

यः पूषा कामेन नः पथस्पथः परिपतिं वचस्या कृतोऽर्कमभ्यानट्। नः शुरुधश्चन्द्राग्रा रासद्धियंधियं प्र सीषधाति स उपदेष्टा न्यायशोऽस्माकं भवेत् ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पथस्पथः) मार्गान् मार्गान् (परिपतिम्) पतिं वर्जयित्वा वा सर्वतः स्वामिनम् (वचस्या) वचसि साधूनि (कामेन) (कृतः) (अभि) (आनट्) अभिव्याप्नोति (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यं क्रियामयं व्यवहारम् (सः) (नः) अस्मभ्यम् (रासत्) दद्यात् (शुरुधः) सद्यो रोधिकाः (चन्द्राग्राः) चन्द्रं सुवर्णमग्रमुत्तमं यासु ताः (धियंधियम्) प्रज्ञां प्रज्ञां कर्म कर्म वा (सीषधाति) साधयति प्रसाधयति (प्र) (पूषा) ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो युष्मान् सन्मार्गं दर्शयित्वा दुष्टमार्गान्निवार्य्य सत्याचारं स्वामिनं सेवयित्वा दुष्टपतिं निवर्त्य प्रज्ञां वर्धयति स एव युष्माभिः सत्कर्त्तव्यो भवति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -हे माणसांनो ! जो तुम्हाला सन्मार्ग दाखवून वाईट मार्गाचा नाश करतो व सत्याने वागणाऱ्याचा स्वीकार करावयास लावतो, दुष्टांचे निवारण करून बुद्धी वाढवितो तोच तुमच्याकडून सत्कार घेण्यायोग्य असतो. ॥ ८ ॥