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पर्ज॑न्यवाता वृषभा पृथि॒व्याः पुरी॑षाणि जिन्वत॒मप्या॑नि। सत्य॑श्रुतः कवयो॒ यस्य॑ गी॒र्भिर्जग॑तः स्थात॒र्जग॒दा कृ॑णुध्वम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parjanyavātā vṛṣabhā pṛthivyāḥ purīṣāṇi jinvatam apyāni | satyaśrutaḥ kavayo yasya gīrbhir jagataḥ sthātar jagad ā kṛṇudhvam ||

पद पाठ

पर्ज॑न्यवाता। वृ॒ष॒भा॒। पृ॒थि॒व्याः। पुरी॑षाणि। जि॒न्व॒त॒म्। अप्या॑नि। सत्य॑ऽश्रुतः। क॒व॒यः॒। यस्य॑। गीः॒ऽभिः। जग॑तः। स्था॒तः॒। जग॑त्। आ। कृ॒णु॒ध्व॒म् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:49» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषभा) वृष्टि करानेवाले यजमान और पुरोहितो ! जैसे (पर्जन्यवाता) मेघस्थ पवन (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष से (अप्यानि) जलों में प्रसिद्ध हुए (पुरीषाणि) जलों को पहुँचाते हैं, वैसे तुम (जिन्वतम्) पहुँचो वा पदार्थ को पहुँचाओ और (सत्यश्रुतः) जो सत्य को सुननेवाले जन हैं, वे (कवयः) विद्वान् होते हुए जलों को (आ, कृणुध्वम्) अच्छे प्रकार सिद्ध करें। हे (स्थातः) स्थिर होनेवाले विद्वान् जन ! (यस्य) जिसकी (गीर्भिः) वाणियों से (जगतः) संसार के बीच (जगत्) जगत् की विशेषता से जानते हो, उसका आप सत्कार करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पवन के समान जगत् के हित करनेवाले तथ सत्य के सुननेवाले हैं, वे ही जगत् को जान कर औरों को इस जगत् का ज्ञान दे सकते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे वृषभा यजमानपुरोहितौ ! यथा पर्जन्यवाता पृथिव्या अप्यानि पुरीषाणि प्रापयतस्तथा युवां जिन्वतं सत्यश्रुतः कवयः सन्तः पुरीषाण्याकृणुध्वम्। हे स्थातर्विद्वन् ! यस्य गीर्भिजगतो जगद्विजानासि तं त्वं सत्कुर्याः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पर्जन्यवाता) पर्जन्यस्थौ वायू (वृषभा) वर्षकौ (पृथिव्याः) अन्तरिक्षात् (पुरीषाणि) उदकानि। पुरीषमित्युदकनाम। (निघं०१.१२) (जिन्वतम्) गमयतम्प्राप्नुतं वा, जिन्वतीति गतिकर्मा। (निघं०२.१४) (अप्यानि) अप्सु भवानि (सत्यश्रुतः) ये सत्यं शृण्वन्ति (कवयः) विद्वांसः (यस्य) (गीर्भिः) वाग्भिः (जगतः) संसारस्य मध्ये (स्थातः) यस्तिष्ठति तत्सम्बुद्धौ (जगत्) (आ) (कृणुध्वम्) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या वायुवज्जगद्धितकराः सत्यस्य श्रोतारः सन्ति त एव जगद्विज्ञायान्यानेतज्ज्ञापयितुं शक्नुवन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे वायूप्रमाणे जगाची हितकर्ती व सत्य श्रवण करणारी असतात तीच जगाला जाणून इतरांना या जगाचे ज्ञान देऊ शकतात. ॥ ६ ॥