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म का॑क॒म्बीर॒मुद्वृ॑हो॒ वन॒स्पति॒मश॑स्ती॒र्वि हि नीन॑शः। मोत सूरो॒ अह॑ ए॒वा च॒न ग्री॒वा आ॒दध॑ते॒ वेः ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā kākambīram ud vṛho vanaspatim aśastīr vi hi nīnaśaḥ | mota sūro aha evā cana grīvā ādadhate veḥ ||

पद पाठ

मा। का॒क॒म्बीर॑म्। उत्। वृ॒हः॒। वन॒स्पति॑म्। अश॑स्तीः। वि। हि। नीन॑शः। मा। उ॒त। सूरः॑। अह॒रिति॑। ए॒व। च॒न। ग्री॒वा। आ॒ऽदध॑ते। वेः ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:48» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (काकंबीरम्) कौओं की पुष्टि करनेवाले (वनस्पतिम्) वट आदि वृक्ष को (मा, उत, वृहः) मत उच्छिन्न करो तथा (अशस्तीः) और अप्रशंसित (हि) ही कर्मों की (वि, नीनशः) विशेषता से निरन्तर नाश करो और (सूरः) सूर्य (अहः, एवा) दिन में ही जैसे (वेः) पक्षी के (ग्रीवाः) कण्ठों को (चन) निश्चय से (आदधते) अच्छे प्रकार धारण करते हैं, वैसे (उत) तो हम लोगों को (मा) मत पीड़ा देओ ॥१७॥
भावार्थभाषाः - किसी मनुष्य को श्रेष्ठ वृक्ष वा वनस्पति न नष्ट करने चाहियें, किन्तु इनमें जो दोष हों, उनको निवारण करके इन्हें उत्तम सिद्ध करने चाहियें, हे मनुष्य ! जैसे श्येन वाज पक्षी और पखेरूओं की गर्दनें पकड़ घोटता है, वैसे किसी को दुःख न देओ ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः किं न कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वंस्त्वं काकंबीरं वनस्पतिं मोद्वृहोऽशस्तीर्हि वि नीनशः सूरोऽहरेवा यथा वेर्ग्रीवाश्चनाऽऽदधते तथोतास्मान् मा पीडय ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (काकंबीरम्) काकानां गोपकम् (उत्) (वृहः) उच्छेदयेः (वनस्पतिम्) वटादिकम् (अशस्तीः) अप्रशंसिताः (वि) (हि) खलु (नीनशः) भृशं नाशयेः (मा) (उत) (सूरः) सूर्यः (अहः) दिनम् (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चन) अपि (ग्रीवाः) कण्ठान् (आदधते) समन्ताद् धरन्ति (वेः) पक्षिणः ॥१७॥
भावार्थभाषाः - केनापि मनुष्येण श्रेष्ठा वृक्षा वनस्पतयो वा नो हिंसनीया एतत्स्थान् दोषान्निवार्योत्तमाः सम्पादनीयाः, हे मनुष्य ! यथा श्येनेन पक्षिणां ग्रीवा गृह्यन्ते तथा कञ्चिदपि मा दुःखय ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कोणत्याही माणसाने वृक्ष किंवा वनस्पती नष्ट करू नयेत, तर त्यांच्यामध्ये जे दोष असतील त्यांचे निवारण केले पाहिजे व ते उत्तम केले पाहिजे. हे माणसा, जसा श्येन पक्षी दुसऱ्या पक्ष्यांची मान मुरगाळतो तसे कुणालाही दुःख देऊ नका. ॥ १७ ॥