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दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑। अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑त॒मिन्द्र॑स्य॒ वज्रं॑ ह॒विषा॒ रथं॑ यज ॥२७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divas pṛthivyāḥ pary oja udbhṛtaṁ vanaspatibhyaḥ pary ābhṛtaṁ sahaḥ | apām ojmānam pari gobhir āvṛtam indrasya vajraṁ haviṣā rathaṁ yaja ||

पद पाठ

दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। ओजः॑। उत्ऽभृ॑तम्। व॒न॒स्पति॑ऽभ्यः। परि॑। आऽभृ॑तम्। सहः॑। अ॒पाम्। ओ॒ज्मान॑म्। परि॑। गोभिः॑। आऽवृ॑तम्। इन्द्र॑स्य। वज्र॑म्। ह॒विषा॑। रथ॑म्। य॒ज॒ ॥२७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:27 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:35» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:27


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किन से उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (दिवः) बिजुली से वा सूर्य्य से (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष से (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वनस्पतियों से (ओजः) बल (उद्भृतम्) उत्तम रीति से धारण किया गया वा (सहः) बल (परि) सब प्रकार से (आभृतम्) सन्मुख धारण किया गया और (गोभिः) किरणों से (अपाम्) जलों के (ओज्मानम्) बलकारी (परि) सब ओर से (आवृतम्) ढाँपे गये (इन्द्रस्य) बिजुली के (वज्रम्) प्रहार को और (रथम्) विमान आदि वाहन विशेष को (हविषा) सामग्री के दान से (परि, यज) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये ॥२७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सब ओर से बल को ग्रहण करके जलों के बलकारी मेघ को जैसे वैसे सुख को वर्षाते हैं, वे सब प्रकार से सत्कृत होते हैं ॥२७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः केभ्य उपकारा ग्राह्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वँस्त्वं दिवः पृथिव्या वनस्पतिभ्य ओज उद्भृतं सहः पर्याभृतं गोभिरपामोज्मानं पर्यावृतमिन्द्रस्य वज्रं रथं च हविषा परि यज ॥२७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) विद्युतस्सूर्याद्वा (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षाद्वा (परि) (ओजः) बलम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टरीत्या धृतम् (वनस्पतिभ्यः) वटादिभ्यः (परि) सर्वतः (आभृतम्) आभिमुख्येन धृतम् (सहः) बलम् (अपाम्) जलानाम् (ओज्मानम्) बलकारिणम् (परि) सर्वतः (गोभिः) किरणैः (आवृतम्) आच्छादितम् (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रम्) प्रहारम् (हविषा) सामग्र्या दानेन (रथम्) विमानादियानविशेषम् (यज) सङ्गच्छस्व ॥२७॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सर्वतो बलं गृहीत्वा सूर्य्योऽपामोज्मानं मेघमिव सुखं वर्षयन्ति ते सर्वतः सत्कृता जायन्ते ॥२७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सूर्य जसा मेघांना जलयुक्त बनवून बलवान बनवितो तशी जी माणसे सगळीकडून बल प्राप्त करून सुखाची वृष्टी करतात त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. ॥ २७ ॥