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प्र॒स्तो॒क इन्नु राध॑सस्त इन्द्र॒ दश॒ कोश॑यी॒र्दश॑ वा॒जिनो॑ऽदात्। दिवो॑दासादतिथि॒ग्वस्य॒ राधः॑ शाम्ब॒रं वसु॒ प्रत्य॑ग्रभीष्म ॥२२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prastoka in nu rādhasas ta indra daśa kośayīr daśa vājino dāt | divodāsād atithigvasya rādhaḥ śāmbaraṁ vasu praty agrabhīṣma ||

पद पाठ

प्र॒स्तो॒कः। इत्। नु। राध॑सः। ते॒। इ॒न्द्र॒। दश॑। कोश॑यीः। दश॑। वा॒जिनः॑। अ॒दा॒त्। दिवः॑ऽदासात्। अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑। राधः॑। शा॒म्ब॒रम्। वसु॑। प्रति॑। अ॒ग्र॒भी॒ष्म॒ ॥२२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:22 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:34» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा और प्रजाजन परस्पर कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो (ते) आपके (वाजिनः) बहुत अन्नों से युक्त (राधसः) धन की (दश) दश (कोशयीः) कोशों खजानों को प्राप्त होनेवाली भूमियों की (प्रस्तोकः) स्तुति करनेवाला (अदात्) देता है और (दश) दशगुनी सम्पादित करता और जिस (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले के (दिवोदासात्) प्रकाश देनेवाले से प्राप्त हुए (राधः) धन को (शाम्बरम्) और मेघ में हुए (वसु) जलनामक द्रव्य को हम लोग (प्रति, अग्रभीष्म) ग्रहण करें उसको (इत्) ही (नु) शीघ्र आप हम लोगों के लिये दीजिये, उसको ही शीघ्र हम लोग आपके लिये देवें ॥२२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो आपके राज्य में असङ्ख्य धनों को देने, वृष्टि करने तथा अतिथियों के सङ्ग का सेवन करनेवाला जन होवे, उसकी रक्षा को आप करिये और जो हम लोगों को धन प्राप्त होवे, उसको आपके लिये हम लोग देवें और जो आपको प्राप्त होवे उसको हम लोगों के लिये दीजिये ॥२२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ राजप्रजाजनौ परस्परं कथं वर्तेयातामित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्ते वाजिनो राधसो दश कोशयीः प्रस्तोकोऽदात्। दशगुणं सम्पादयति यदतिथिग्वस्य दिवोदासात् प्राप्तं राधः शाम्बरं वसु च वयं प्रत्यग्रभीष्म तदिन्नु भवानस्मभ्यं प्रयच्छतु तदिन्नु वयं तुभ्यं दद्याम ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रस्तोकः) यः प्रस्तौति (इत्) एव (नु) सद्यः (राधसः) धनस्य (ते) तव (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्ययुक्त (दश) (कोशयीः) याः कोशान् यान्ति ता भूमीः (दश) एतत्संख्याकाः (वाजिनः) बह्वन्नयुक्तस्य (अदात्) ददाति (दिवोदासात्) प्रकाशदातुः (अतिथिग्वस्य) योऽतिथीनागच्छति तस्य (राधः) (शाम्बरम्) शंबरे मेघे भवम् (वसु) जलाख्यं द्रव्यम् (प्रति) (अग्रभीष्म) गृह्णीयाम ॥२२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यस्ते राष्ट्रेऽसङ्ख्यधनप्रदो वृष्टिकरोऽतिथिसङ्गसेवनो जनो भवेत्तस्य रक्षां त्वं विधेहि। यदस्मान् धनं प्राप्नुयात्तत्तुभ्यं वयं दद्याम यत्त्वामीयात्तदस्मभ्यं देहि ॥२२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तुझ्या राज्यात असंख्य धन देणारे, वृष्टी करणारे, अतिथींचा संग करणारे लोक असतील तर त्यांचे तू रक्षण कर. जर आम्हाला धन प्राप्त झाले तर ते आम्ही तुला देऊ व जे तुला प्राप्त होईल ते आम्हाला दे. ॥ २२ ॥