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दि॒वेदि॑वे स॒दृशी॑र॒न्यमर्धं॑ कृ॒ष्णा अ॑सेध॒दप॒ सद्म॑नो॒ जाः। अह॑न्दा॒सा वृ॑ष॒भो व॑स्न॒यन्तो॒दव्र॑जे व॒र्चिनं॒ शम्ब॑रं च ॥२१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dive-dive sadṛśīr anyam ardhaṁ kṛṣṇā asedhad apa sadmano jāḥ | ahan dāsā vṛṣabho vasnayantodavraje varcinaṁ śambaraṁ ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि॒वेऽदि॑वे। स॒ऽदृशीः॑। अ॒न्यम्। अर्ध॑म्। कृ॒ष्णाः। अ॒से॒ध॒त्। अप॑। सद्म॑नः। जाः। अह॑न्। दा॒सा। वृ॒ष॒भः। व॒स्न॒यन्ता॑। उ॒दऽव्र॑जे। व॒र्चिन॑म्। शम्ब॑रम्। च॒ ॥२१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:21 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:34» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा और प्रजाजन कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (जाः) प्रकट हुआ सूर्य्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सदृशीः) तुल्यस्वरूपयुक्त (कृष्णाः) खराब वर्णवाली वा खोदी गई पृथिवियों और (अन्यम्) अन्य (अर्द्धम्) आधे को (च) भी (असेधत्) अलग करता है और (सद्मनः) निवास करते हैं जिसमें उस गृह के अन्धकार को (अप) अलग करता है तथा (वृषभः) वृष्टि करनेवाला (उदव्रजे) जल जाते हैं जिसमें उसमें (वर्चिनम्) प्रकाशमान (शम्बरम्) मेघ का (अहन्) नाश करता है, वैसे (वस्नयन्ता) निवास करते हुए के समान आचरण करते हुए राजा और प्रजाजन (दासा) उपेक्षा करनेवाले हुए वर्त्ताव करें ॥२१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य और मेघ समस्त पृथिवी का आकर्षण कर प्रकाश और जलयुक्त करते हैं वा जैसे सूर्य इस पृथिवी के अर्द्धभाग को प्रकाशित करता और वर्षा को करता है तथा अन्धकार का निवारण कर सबको सुखी करता है, वैसे ही राजा और प्रजाजन सत्य को खैंच असत्य को त्याग कर अन्याय का निवारण कर न्याय का प्रचार कर और उत्तम विद्या के उपदेशों की वृष्टि कर सब मनुष्यों को सुखी करें ॥२१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ राजप्रजाजनौ कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा जाः सूर्यो दिवेदिवे सदृशीः कृष्णा अन्यमर्धं चाऽसेधत् सद्मनोऽन्धकारमपासेधद् वृषभ उदव्रजे वर्चिनं शम्बरमहँस्तथा वस्नयन्ता दासा वर्त्तेयाताम् ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सदृशीः) समानस्वरूपाः (अन्यम्) (अर्द्धम्) अर्द्धकम् (कृष्णाः) निकृष्टवर्णाः कर्षिता वा (असेधत्) सेधते (अप) (सद्मनः) सीदन्ति यस्मिँस्तस्य (जाः) जायमानः सूर्यः (अहन्) हन्ति (दासा) दासावुपक्षयितारौ (वृषभः) वृष्टिकरः (वस्नयन्ता) वस्नमिवाचरन्तौ राजप्रजाजनौ (उदव्रजे) उदकानि व्रजन्ति यस्मिँस्तस्मिन् (वर्चिनम्) देदीप्यमानम् (शम्बरम्) मेघम् (च) ॥२१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा सूर्यमेघौ सर्वां पृथिवीमाकृष्य प्रकाशजलयुक्तां कुरुतः। यथा सूर्योऽस्या अर्धं भागं प्रकाशयति वृष्टिं च करोत्यन्धकारं निवार्य्य सर्वान् सुखयति तथैव राजप्रजाजनौ सत्यमाकृष्याऽसत्यं त्यक्त्वाऽन्यायं निवार्य्य न्यायं प्रचार्य्य सद्विद्योपदेशवृष्टिं विधाय सर्वान् मनुष्यान् सुखयेताम् ॥२१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे सूर्य व मेघ संपूर्ण पृथ्वीला आकर्षित करून प्रकाश व जल देतात, जसा सूर्य पृथ्वीच्या अर्ध्या भागाला प्रकाशित करतो व वृष्टी करतो, अंधकाराचे निवारण करून सर्वांना सुखी करतो तसेच राजा व प्रजा यांनी सत्याचा स्वीकार व असत्याचा त्याग करून अन्यायाचे निवारण करावे. न्यायाचा प्रचार करून उत्तम विद्येच्या उपदेशाची वृष्टी करावी व सर्व माणसांना सुखी करावे. ॥ २१ ॥