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अ॒ग॒व्यू॒ति क्षेत्र॒माग॑न्म देवा उ॒र्वी स॒ती भूमि॑रंहूर॒णाभू॑त्। बृह॑स्पते॒ प्र चि॑कित्सा॒ गवि॑ष्टावि॒त्था स॒ते ज॑रि॒त्र इ॑न्द्र॒ पन्था॑म् ॥२०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agavyūti kṣetram āganma devā urvī satī bhūmir aṁhūraṇābhūt | bṛhaspate pra cikitsā gaviṣṭāv itthā sate jaritra indra panthām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग॒व्यू॒ति। क्षेत्र॑म्। आ। अ॒ग॒न्म॒। दे॒वाः॒। उ॒र्वी। स॒ती। भूमिः॑। अं॒हू॒र॒णा। अ॒भू॒त्। बृह॑स्पते। प्र। चि॒कि॒त्स॒। गोऽइ॑ष्टौ। इ॒त्था। स॒ते। ज॒रि॒त्रे। इ॒न्द्र॒। पन्था॑म् ॥२०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:20 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे आरोग्य को प्राप्त होवें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) बड़ों के पालन करने (चिकित्सा) रोगों की परीक्षा करने और (इन्द्र) रोग और दोषों के दूर करनेवाले वैद्यराज ! आपके सहाय से (उर्वी) बहुत फल आदि से युक्त (सती) वर्त्तमान (अंहूरणा) चलनेवालों का सङ्ग्राम जिसमें वह (भूमिः) पृथिवी (अभूत्) होती है और जहाँ (अगव्यूति) दो कोश के परिमाण से रहित (क्षेत्रम्) निवास करते हैं जिस स्थान में ऐसा स्थान होता है उसको (देवाः) विद्वान् हम लोग (आ, अगन्म) सब प्रकार से प्राप्त होवें (इत्था) इस प्रकार से वा इस हेतु से (गविष्टौ) उत्तम प्रकार शिक्षितवाणी की सङ्गति में (सते) वर्त्तमान (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (पन्थाम्) मार्ग को (प्र) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो श्रेष्ठ वैद्य होवें उनके साथ मित्रता से रोग रहित, अधिक अवस्थावाले, बलिष्ठ, विद्वान् हो और भूमि के राज्य को प्राप्त होकर जहाँ कहीं विमान आदि वाहनों से जा-आ कर विद्वानों के मार्ग का आश्रयण करो ॥२०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथमारोग्यं प्राप्नुयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे बृहस्पते चिकित्सेन्द्र वैद्यराजंस्त्वत्सहायेन या उर्वी सत्यंहूरणा भूमिरभूद्यत्राऽगव्यूति क्षेत्रमभूतां देवा वयमागन्मेत्था गविष्टौ सते जरित्रे पन्थां प्रागन्म ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अगव्यूति) क्रोशद्वयपरिमाणरहितम् (क्षेत्रम्) क्षियन्ति निवसन्ति तं देशम् (आ) (अगन्म) समन्तात् प्राप्नुयाम (देवाः) विद्वांसः (उर्वी) बहुफलाद्युपेता (सती) वर्त्तमाना (भूमिः) पृथिवी (अंहूरणा) येंऽहयन्ति तेंऽहवो गन्तारस्तेषां रणः सङ्ग्रामो यस्यां सा (अभूत्) भवति (बृहस्पते) बृहतां पालक (प्र) (चिकित्सा) यश्चिकित्सति रोगपरीक्षां करोति तत्संबुद्धौ। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गविष्टौ) गौः सुशिक्षिताया वाचः सङ्गतौ (इत्था) अनेन प्रकोरणऽस्माद्धेतोर्वा (सते) (जरित्रे) स्तावकाय (इन्द्र) रोगदोषनिवारक (पन्थाम्) पन्थानम् ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये सद्वैद्याः स्युस्तन्मित्रतयाऽरोगा दीर्घायुषो बलिष्ठा विद्वांसो भूत्वा भूमिराज्यं प्राप्य यत्र कुत्र विमानादियानैर्गत्वाऽऽगत्य विद्वन्मार्गमाश्रयन्तु ॥२०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे श्रेष्ठ वैद्य असतील त्यांच्याबरोबर मैत्री करून रोगरहित, दीर्घायुषी, बलवान व विद्वान बना. भूमीचे राज्य प्राप्त करून विमान इत्यादी यानाने इकडे-तिकडे जा-ये करा व विद्वानांच्या मार्गाचा अवलंब करा. ॥ २० ॥