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त्वामु॒ग्रमव॑से चर्षणी॒सहं॒ राज॑न्दे॒वेषु॑ हूमहे। विश्वा॒ सु नो॑ विथु॒रा पि॑ब्द॒ना व॑सो॒ऽमित्रा॑न्त्सु॒षहा॑न्कृधि ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām ugram avase carṣaṇīsahaṁ rājan deveṣu hūmahe | viśvā su no vithurā pibdanā vaso mitrān suṣahān kṛdhi ||

पद पाठ

त्वाम्। उ॒ग्रम्। अव॑से। च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म्। राज॑न्। दे॒वेषु॑। हू॒म॒हे॒। विश्वा॑। सु। नः॒। वि॒थु॒रा। पि॒ब्द॒ना। व॒सो॒ इति॑। अ॒मित्रा॑न्। सु॒ऽसहा॑न्। कृ॒धि॒ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:46» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसो) सुख में वसानेवाले (राजन्) विद्या और विनय से प्रकाशमान ! हम लोग (विश्वा) सम्पूर्ण कार्य्यों के प्रति और (देवेषु) विद्वानों में (अवसे) रक्षण आदि के लिये (उग्रम्) तेजस्वी और (चर्षणीसहम्) शत्रुओं की सेना के सहनेवाले (त्वाम्) आपको (सु, हूमहे) अच्छी प्रकार पुकारें और आप (नः) हम लोगों के (अमित्रान्) शत्रुओं को (सुसहान्) सुख के सहने योग्य (कृधि) करिये और (पिब्दना) पीसने योग्य शत्रुसैन्यों को (विथुरा) व्यथायुक्त करिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो राजा मन्त्री और प्रजाजनों के सुख और दुःख को अपने सदृश जान कर जैसे शत्रुओं का पराभव होवे वैसा उपाय करनेवाला होवे, उसी को सब लोग पिता के सदृश मानें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे वसो राजन् ! वयं विश्वा देवेष्ववस उग्रं चर्षणीसहं त्वां सु हूमहे त्वं नोऽमित्रान्त्सुसहान् कृधि पिब्दना विथुरा कृधि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (अवसे) रक्षणाद्याय (चर्षणीसहम्) शत्रुसेनायाः सोढारम् (राजन्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (देवेषु) विद्वत्सु (हूमहे) आह्वयामः (विश्वा) सर्वाणि (सु) (नः) अस्माकम् (विथुरा) व्यथायुक्तानि (पिब्दना) पेष्टुमर्हाणि शत्रुसैन्यानि (वसो) सुखे वासयितः (अमित्रान्) शत्रून् (सुसहान्) सुखेन सोढुं योग्यान् (कृधि) कुरु ॥६॥
भावार्थभाषाः - यो राजाऽमात्यप्रजाजनानां सुखदुःखे स्वात्मवद् ज्ञात्वा यथा शत्रूणां पराभवः स्यात्तथाऽनुष्ठाता भवेत्तमेव सर्वे जनाः पितृवन्मन्येरन् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा मंत्री व प्रजाजनांचे सुख-दुःख आपल्याप्रमाणेच मानून शत्रूंचा पराभव होण्यासाठी उपाय करणारा असेल तर त्यालाच सर्व लोकांनी पित्याप्रमाणे मानावे. ॥ ६ ॥