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सिन्धूँ॑रिव प्रव॒ण आ॑शु॒या य॒तो यदि॒ क्लोश॒मनु॒ ष्वणि॑। आ ये वयो॒ न वर्वृ॑त॒त्यामि॑षि गृभी॒ता बा॒ह्वोर्गवि॑ ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sindhūm̐r iva pravaṇa āśuyā yato yadi klośam anu ṣvaṇi | ā ye vayo na varvṛtaty āmiṣi gṛbhītā bāhvor gavi ||

पद पाठ

सिन्धू॑न्ऽइव। प्र॒व॒णे। आ॒शु॒ऽया। य॒तः। यदि॑। क्लोश॑म्। अनु॑। स्वनि॑। आ। ये। वयः॑। न। वर्वृ॑त॒ति। आमि॑षि। गृ॒भी॒ताः। बा॒ह्वोः। गवि॑ ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:46» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा आदि क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप (यदि) जो (प्रवणे) नीचे के स्थान में (सिन्धूनिव) नदियों को जैसे वैसे (आशुया) शीघ्र चलनेवाले घोड़ों से वा (स्वनि) शब्द के होने और (आमिषि) मांस के देखने पर (वयः) पक्षी (नः) जैसे वैसे (गवि) पृथिवी में (क्लोशम्) कोश को (अनु, वर्वृतति) अत्यन्त वा बारम्बार प्राप्त होते हैं वा (बाह्वोः) बाहुओं में (गृभीताः) ग्रहण की गई किरणें वा कलायें यथावत् जाती हैं तो दूसरे स्थान में प्राप्त होना दुर्लभ नहीं है (ये) जो (यतः) जहाँ से जाते (आ) आते हैं, वे भी ऐसा करें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम जैसे जल ऊँचे स्थान से नीचे के स्थान को शीघ्र जाता है और जैसे बाज आदि पक्षी माँस के लिये शीघ्र जाते हैं, वैसे भूमि, अन्तरिक्ष वा जल में वाहनों से शीघ्र जाओ ॥१४॥ इस सूक्त में राजा, वीर, सङ्ग्राम, गृह, शूरवीर और यान कृत्य के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छयालीसवाँ सूक्त और उनतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजादयः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! भवान् यदि प्रवणे सिन्धूनिवाशुया स्वन्यामिषि वयो न गवि क्लोशमनुवर्वृतति। बाह्वोर्गृभीता रश्मयः कला वा यथावच्चलन्ति तर्हि स्थानान्तरप्राप्तिर्दुर्लभा नास्ति ये यतो गच्छन्त्यागच्छन्ति तेऽप्येवमनुतिष्ठन्तु ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धूनिव) नदीरिव (प्रवणे) निम्नस्थाने (आशुया) आशुगैरश्वैः (यतः) यस्मात् (यदि) (क्लोशम्) क्रोशम् (अनु) (स्वनि) शब्दे (आ) (ये) (वयः) पक्षिणः (न) इव (वर्वृतति) भृशं गच्छति (आमिषि) मांसे दृष्टे सति (गृभीताः) गृहीताः (बाह्वोः) (गवि) पृथिव्याम् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं यथोदकमुच्चस्थानान् निम्नं देशं सद्यो गच्छति यथा वा श्येनादयः पक्षिणो मांसार्थं तूर्णं धावन्ति तथैव भूम्यन्तरिक्षे जले वा यानैः सद्यो गच्छतेति ॥१४॥ अत्र राजवीरसङ्ग्रामगृहशूरवीरयानकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्चत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकोनत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जल जसे उंच स्थानावरून खालच्या स्थानी तात्काळ पोहोचते व जसे ससाणा इत्यादी पक्षी मांसासाठी तत्काळ जातात तसे तुम्ही वाहनांद्वारे भूमी, अंतरिक्ष किंवा जलात तात्काळ जा. ॥ १४ ॥