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अध॑ स्मा नो वृ॒धे भ॒वेन्द्र॑ ना॒यम॑वा यु॒धि। यद॒न्तरि॑क्षे प॒तय॑न्ति प॒र्णिनो॑ दि॒द्यव॑स्ति॒ग्ममू॑र्धानः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha smā no vṛdhe bhavendra nāyam avā yudhi | yad antarikṣe patayanti parṇino didyavas tigmamūrdhānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। स्म॒। नः॒। वृ॒धे। भ॒व॒। इन्द्र॑। ना॒यम्। अ॒व॒। यु॒धि। यत्। अ॒न्तरि॑क्षे। प॒तय॑न्ति। प॒र्णिनः॑। दि॒द्यवः॑। ति॒ग्मऽमू॑र्धानः ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:46» मन्त्र:11 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के बढ़ानेवाले सेना के स्वामी ! (यत्) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (पर्णिनः) पक्षियों के समान (दिद्यवः) प्रकाशमान (तिग्ममूर्द्धानः) ऊपर वर्त्तमान योद्धा जन (युधि) सङ्ग्राम में (पतयन्ति) जाते हैं (अध) इसके अनन्तर विजय को (नायम्) प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं उनके साथ (नः) हम लोगों की (वृधे) वृद्धि के लिये (भव) प्रसिद्ध हूजिये और सङ्ग्राम में हम लोगों की (स्मा) ही निरन्तर (अवा) रक्षा कीजिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप विमान आदि वाहनों को स्थापित कर पक्षियों के सदृश अन्तरिक्ष मार्ग से गमन और आगमन करके तथा उत्तम पुरुषों के साथ विजय को प्राप्त होकर सब से श्रेष्ठ हूजिये ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यद्येऽन्तरिक्षे पर्णिन इव दिद्यवस्तिग्ममूर्द्धानो योद्धारो युधि पतयन्त्यध विजयं नायं प्रयतन्ते तैः सह नो वृधे भव युध्यस्मान् स्मा सततमवा ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) आनन्तर्य्ये (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (वृधे) (भव) (इन्द्र) ऐश्वर्यवर्धक (नायम्) नेतुम् (अवा) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (युधि) सङ्ग्रामे (यत्) (अन्तरिक्षे) (पतयन्ति) गच्छन्ति (पर्णिनः) पक्षिणः (दिद्यवः) प्रकाशमानाः (तिग्ममूर्द्धानः) तिग्म उपरि वर्त्तमानाः ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! भवान् विमानादीनि यानानि संस्थाप्य पक्षिवदन्तरिक्षमार्गेण गमनागमने कृत्वोत्तमैः पुरुषैः सह विजयं प्राप्य सर्वोत्कृष्टो भव ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू विमान इत्यादी वाहने तयार करून पक्ष्यांप्रमाणे अंतरिक्ष मार्गात जा-ये करून उत्तम पुरुषांच्या संगतीने विजय प्राप्त करून सर्वात श्रेष्ठ बन. ॥ ११ ॥