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तत्सु नो॒ विश्वे॑ अ॒र्य आ सदा॑ गृणन्ति का॒रवः॑। बृ॒बुं स॑हस्र॒दात॑मं सू॒रिं स॑हस्र॒सात॑मम् ॥३३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tat su no viśve arya ā sadā gṛṇanti kāravaḥ | bṛbuṁ sahasradātamaṁ sūriṁ sahasrasātamam ||

पद पाठ

तत्। सु। नः॒। विश्वे॑। अ॒र्यः। आ। सदा॑। गृ॒ण॒न्ति॒। का॒रवः॑। बृ॒बुम्। स॒ह॒स्र॒ऽदात॑मम्। सू॒रिम्। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मम् ॥३३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:45» मन्त्र:33 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:8 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:33


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (नः) हम लोगों के (विश्वे) सब (कारवः) कारीगर जन (सहस्रदातमम्) अतिशय असङ्ख्य देनेवाले (बृबुम्) मुख्य शिल्पी (सहस्रसातमम्) अतिशय असङ्ख्य पदार्थ बाँटनेवाले (सूरिम्) विद्वान् को (सु) उत्तमता से (आ) सब प्रकार (गृणन्ति) स्वीकार करते हैं, वे (तत्) उस अतुल ऐश्वर्य्य को (सदा) सर्वकाल में प्राप्त होते हैं और जो इन में (अर्यः) स्वामी वा वैश्य होवे, वह इन का उत्तम प्रकार सत्कार कर रक्षा करे ॥३३॥
भावार्थभाषाः - जो जन क्रिया में निपुण विद्वानों और कारीगरों की प्रशंसा करते हैं, वे असङ्ख्य धन को प्राप्त होकर असङ्ख्य धन देने योग्य होते हैं ॥३३॥ इस सूक्त में राजनीति, धन के जीतनेवाले, मित्रपन, वेद के जाननेवाले, ऐश्वर्य्य से युक्त, दाता, कारीगर और स्वामी के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

ये नो विश्वे कारवस्सहस्रदातमं बृबुं सहस्रसातमं सूरिं स्वा गृणन्ति ते तदतुल्यमैश्वर्य्यं सदा प्राप्नुवन्ति य एषामर्यो भवेत्स एतान् सत्कृत्य संरक्षेत् ॥३३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (सु) (नः) अस्माकम् (विश्वे) सर्वे (अर्यः) स्वामी वैश्यो वा (आ) समन्तात् (सदा) (गृणन्ति) (कारवः) शिल्पिनः (बृबुम्) मुख्यं शिल्पिनम् (सहस्रदातमम्) अतिशयेनासङ्ख्यदातारम् (सूरिम्) विद्वांसम् (सहस्रसातमम्) असङ्ख्यानां पदार्थानामतिशयेन विभक्तारम् ॥३३॥
भावार्थभाषाः - ये क्रियाकुशलान् विदुषः शिल्पिनः प्रशंसन्ति तेऽसङ्ख्यं धनं प्राप्यासङ्ख्यं धनं दातुमर्हन्तीति ॥३३॥ अत्र राजनीतिधनजेतृमित्रत्ववेदविदिन्द्रदातृशिल्पिकारुस्वामिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक क्रिया कुशल विद्वानांची व कारागिरांची प्रशंसा करतात ते विपुल धन प्राप्त करून असंख्य धन दान देऊ शकतात. ॥ ३३ ॥