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अ॒यं द्यावा॑पृथि॒वी वि ष्क॑भायद॒यं रथ॑मयुनक्स॒प्तर॑श्मिम्। अ॒यं गोषु॒ शच्या॑ प॒क्वम॒न्तः सोमो॑ दाधार॒ दश॑यन्त्र॒मुत्स॑म् ॥२४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ dyāvāpṛthivī vi ṣkabhāyad ayaṁ ratham ayunak saptaraśmim | ayaṁ goṣu śacyā pakvam antaḥ somo dādhāra daśayantram utsam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। वि। स्क॒भा॒य॒त्। अ॒यम्। रथ॑म्। अ॒यु॒न॒क्। स॒प्तऽर॑श्मिम्। अ॒यम्। गोषु॑। शच्या॑। प॒क्वम्। अ॒न्तरिति॑। सोमः॑। दा॒धा॒र॒। दश॑ऽयन्त्रम्। उत्स॑म् ॥२४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:24 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:24


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् जन ईश्वर के सदृश वर्त्तमान करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! जैसे (अयम्) यह ईश्वर (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि को (वि) विशेष करके (स्कभायत्) धारण करता है और (अयम्) यह सब को धारण करनेवाला ईश्वर (सप्तरश्मिम्) सात प्रकार की विद्यारूप किरणें जिसमें उस (रथम्) सुन्दर सूर्य्यलोक को (अयुनक्) युक्त करता है और (अयम्) यह धारण और नहीं धारण करनेवाला परमात्मा (सोमः) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला (शच्या) सत्य कर्म्म से (गोषु) पृथिवियों वा धेनु आदि के (अन्तः) मध्य में (उत्सम्) कूप के सदृश जल से स्वेदित को जैसे वैसे (दशयन्त्रम्) सूक्ष्म और स्थूल दश प्रकार के भूत प्राणी यन्त्रित जिसमें उस (पक्वम्) पके हुए को (दाधार) धारण करता है, वैसे आप लोग भी धारण कीजिये ॥२४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् जनो ! जो सूर्य्य के सदृश न्याय को, पृथिवी के सदृश क्षमा को, सब के धारण और दुग्ध आदि रसों को और सब जगत् को यथावत् निर्माण करके धारण करता है, वैसे आप लोग भी इस सब को धारण करिये ॥२४॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और ईश्वर के गुण कर्मों के वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चवालीसवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वांस ईश्वरवद्वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथाऽयमीश्वरो द्यावापृथिवी विष्कभायदयं सप्तरश्मिं रथमयुनगयं सोमः शच्या गोष्वन्तरुत्समिव दशयन्त्रं पक्वं दाधार तथा यूयमपि धरत ॥२४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (वि) विशेषेण (स्कभायत्) दधाति (अयम्) सर्वधर्त्तेश्वरः (रथम्) रमणीयसूर्यलोकम् (अयुनक्) युनक्ति (सप्तरश्मिम्) सप्तविधा विद्यारश्मयो यस्मिँस्तम् (अयम्) धराधरः परमात्मा (गोषु) पृथिवीषु धेन्वादिषु वा (शच्या) सत्येन कर्मणा (पक्वम्) (अन्तः) मध्ये (सोमः) यः सर्वं जगत् सूते सः (दाधार) दधाति। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (दशयन्त्रम्) सूक्ष्मस्थूलानि दशभूतानि यन्त्रितानि यस्मिँस्तत् (उत्सम्) कूपमिव जलेन क्लिन्नम् ॥२४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यः सूर्यवन्न्यायं पृथिवीवत् क्षमां सर्वस्य धारणं दुग्धादीन् रसान्त्सर्वं जगद्यथावन्निर्माय धरति तथा यूयमप्येतत् सर्वं धरतेति ॥२४॥ अत्रेन्द्रविद्वदीश्वरगुणकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुश्चत्वारिंशत्तमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जो (परमात्मा) सूर्याप्रमाणे न्याय (प्रकाश) व पृथ्वीप्रमाणे क्षमा, दूध इत्यादी रस धारण करतो व सर्व जगाला यथायोग्यरीत्या निर्माण करून धारण करतो तसे तुम्हीही या सर्वांना धारण करा. ॥ २४ ॥