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ए॒ना म॑न्दा॒नो ज॒हि शू॑र॒ शत्रू॑ञ्जा॒मिमजा॑मिं मघवन्न॒मित्रा॑न्। अ॒भि॒षे॒णाँ अ॒भ्या॒३॒॑देदि॑शाना॒न्परा॑च इन्द्र॒ प्र मृ॑णा ज॒ही च॑ ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

enā mandāno jahi śūra śatrūñ jāmim ajāmim maghavann amitrān | abhiṣeṇām̐ abhy ādediśānān parāca indra pra mṛṇā jahī ca ||

पद पाठ

ए॒ना। म॒न्दा॒नः। ज॒हि। शू॒र॒। शत्रू॑न्। जा॒मिम्। अजा॑मिम्। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒मित्रा॑न्। अ॒भि॒ऽसे॒नान्। अ॒भि। आ॒ऽदेदि॑शानान्। परा॑चः। इ॒न्द्र॒। प्र। मृ॒ण॒। ज॒हि। च॒ ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) दुष्टों को मारनेवाले (मघवन्) बहुत धनों से युक्त (इन्द्र) दुष्टों के विदारक ! आप (एना) इससे (मन्दानः) प्रशंसित हुए (जामिम्) जवाँई आदि को (अजामिम्) दूसरी सम्बन्ध रहित को (शत्रून्) धर्म्म के विरोधियों (अमित्रान्) मित्रभावरहित वैरियों का (जहि) त्याग करो (अभिषेणान्) सन्मुख सेना जिनकी उन (आदेदिशानान्) अत्यन्त आज्ञा करनेवाले (पराचः) पश्चिम की ओर अर्थात् पीछे मुख किये हुओं की (अभि, प्र, मृणा) बाधा करो (च) और अविद्या आदि दोषों का (जही) त्याग करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् सेना के स्वामिन् ! आप ब्रह्मचर्य और सोमलता के रस के पान आदि से स्वयं आनन्दित हुए वीरों को आनन्द देकर सम्पूर्ण शत्रुओं को जीतो ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे शूर मघवन्निन्द्र ! त्वमेना मन्दानः सन् जामिमजामिं शत्रूनमित्रान् जहि। अभिषेणानादेदिशानान् पराचोऽभि प्रमृणा। अविद्यादिदोषाँश्च जही ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एना) एनेन (मन्दानः) प्रकाशितः (जहि) (शूर) दुष्टानां हिंसक (शत्रून्) धर्मविरोधिनः (जामिम्) जामात्रादिकम् (अजामिम्) अन्यामसम्बन्धाम् (मघवन्) बहुधनयुक्त (अमित्रान्) मित्रभावरहितान् (अभिषेणान्) आभिमुख्या सेना येषां तान् (अभि) (आदेदिशानान्) भृशमाज्ञाकर्त्तॄन् (पराचः) पराङ्मुखान् (इन्द्र) दुष्टविदारक (प्र) (मृणा) बाधस्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (जही) अत्रापि पूर्ववद्दीर्घः (च) ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे राजन्त्सेनापते ! त्वं ब्रह्मचर्येण सोमपानादिना च स्वयमानन्दितः सन् वीरानानन्द्य सर्वाञ्छत्रून्विजयस्व ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! सेनेच्या स्वामी ! तू ब्रह्मचर्य व सोमलतेचे रसपान इत्यादींनी स्वतः आनंदित हो व वीरांना आनंदित करून सर्व शत्रूंना जिंक ॥ १७ ॥