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पाता॑ सु॒तमिन्द्रो॑ अस्तु॒ सोमं॒ हन्ता॑ वृ॒त्रं वज्रे॑ण मन्दसा॒नः। गन्ता॑ य॒ज्ञं प॑रा॒वत॑श्चि॒दच्छा॒ वसु॑र्धी॒नाम॑वि॒ता का॒रुधा॑याः ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pātā sutam indro astu somaṁ hantā vṛtraṁ vajreṇa mandasānaḥ | gantā yajñam parāvataś cid acchā vasur dhīnām avitā kārudhāyāḥ ||

पद पाठ

पाता॑। सु॒तम्। इन्द्रः॑। अ॒स्तु॒। सोम॑म्। हन्ता॑। वृ॒त्रम्। वज्रे॑ण। म॒न्द॒सा॒नः। गन्ता॑। य॒ज्ञम्। प॒रा॒ऽवतः॑। चि॒त्। अच्छ॑। वसुः॑। धी॒नाम्। अ॒वि॒ता। का॒रुऽधा॑याः ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:15 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य का देनेवाला (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ओषधिरस को (पाता) पान करनेवाला (वज्रेण) शस्त्र और अस्त्रों के समूह से (मन्दसानः) कामना करता हुआ (वृत्रम्) मेघ को सूर्य्य जैसे वैसे शत्रुओं को (हन्ता) मारने (यज्ञम्) श्रेष्ठक्रियास्वरूप व्यवहार को (गन्ता) प्राप्त होने (परावतः) दूर देश से (चित्) भी (कारुधायाः) शिल्पी जनों का धारण करनेवाला और (वसुः) बसानेवाला होता हुआ (धीनाम्) उत्तम कर्म्मों की (अच्छा) अच्छे प्रकार (अविता) रक्षा करनेवाला है, वह अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (अस्तु) हो, उसका आप लोग निरन्तर सत्कार करो ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा आदि मनुष्य वैद्यकशास्त्र की रीति से उत्पन्न किये ओषधियों के रस को पीते हैं तथा शस्त्र और अस्त्र की विद्या से दुष्टों का निवारण करके न्यायप्रचार नामक कर्म्म का प्रचार करके सत्कर्म्म के करने और शिल्पविद्या के जाननेवालों को स­ह करके आलस्य का त्याग करके श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रवृत्त होते, वे ही यहाँ प्रशंसनीय होते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इन्द्रस्सुतं सोमं पाता वज्रेण मन्दसानो वृत्रं सूर्य इव शत्रून् हन्ता यज्ञं गन्ता परावतश्चित्कारुधाया वसुः सन् धीनामच्छाऽविता वर्त्तत इन्द्रोऽस्तु तं यूयं सततं सत्कुरुत ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पाता) पानकर्त्ता। अत्रावितेति विहाय सर्वत्र तृन् प्रत्ययः। (सुतम्) निष्पन्नम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (अस्तु) (सोमम्) ओषधिरसम् (हन्ता) (वृत्रम्) मेघम् (वज्रेण) शस्त्राऽस्त्रसमूहेन (मन्दसानः) कामयमानः (गन्ता) (यज्ञम्) सत्क्रियामयं व्यवहारम् (परावतः) दूरदेशात् (चित्) अपि (अच्छा) (वसुः) वासयिता (धीनाम्) उत्तमानाम्। धीरिति कर्मनाम। (निघं०२.१) (अविता) रक्षकः (कारुधायाः) कारूणां शिल्पीनां धारकः ॥१५॥
भावार्थभाषाः - ये राजादयो मनुष्या वैद्यकशास्त्रसम्पादितमोषधिरसं पिबन्ति शस्त्रास्त्रविद्यया दुष्टान्निवार्य न्यायप्रचाराख्यं प्रचार्य्य सत्कर्मानुष्ठातारः शिल्पविद्याविदः सङ्गृह्यालस्यं विहाय सत्कर्मसु प्रवर्त्तन्ते त एवात्र प्रशंसनीया भवन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजे वगैरे लोक वैद्यकशास्त्रानुसार औषधींचा रस प्राशन करतात व शस्त्रास्त्रविद्येने दुष्टांचे निवारण करून न्यायाचा प्रचार करून सत्कर्म करणाऱ्यांना व शिल्पविद्या जाणणाऱ्यांना जवळ करतात, आळस सोडून श्रेष्ठ कर्मात प्रवृत्त होतात ते प्रशंसनीय ठरतात. ॥ १५ ॥