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ह्वया॑मसि॒ त्वेन्द्र॑ याह्य॒र्वाङरं॑ ते॒ सोम॑स्त॒न्वे॑ भवाति। शत॑क्रतो मा॒दय॑स्वा सु॒तेषु॒ प्रास्माँ अ॑व॒ पृत॑नासु॒ प्र वि॒क्षु ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hvayāmasi tvendra yāhy arvāṅ araṁ te somas tanve bhavāti | śatakrato mādayasvā suteṣu prāsmām̐ ava pṛtanāsu pra vikṣu ||

पद पाठ

ह्वया॑मसि। त्वा॒। आ। इ॒न्द्र॒। या॒हि॒। अ॒र्वाङ्। अर॑म्। ते॒। सोमः॑। त॒न्वे॑। भ॒वा॒ति॒। शत॑क्रतो॒ इति॒ शत॑ऽक्रतो। मा॒दय॑स्व। सु॒तेषु॑। प्र। अ॒स्मान्। अ॒व॒। पृत॑नासु। प्र। वि॒क्षु ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:41» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हुआ क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) असङ्ख्य बुद्धियुक्त तथा उत्तम कर्म्म करने और (इन्द्र) सब प्रकार से रक्षा करनेवाले (ते) आपके (तन्वे) शरीर के लिये जो (सोमः) बड़ी ओषधि आदि का रस (अर्वाङ्) नीचे चलनेवाला (प्र, भवति) प्रभाव को प्राप्त होता है उसको आप (याहि) प्राप्त हूजिये और जिन (त्वा) आपको हम लोग (आ, ह्वयामसि) पुकारते हैं वह आप (सुतेषु) उत्पन्न हुए ऐश्वर्य्यों में (अस्मान्) हम लोगों की (प्र, अव) उत्तम प्रकार रक्षा करो और (पृतनासु) मनुष्यों वा सेनाओं में और (विक्षु) प्रजाओं में (अरम्) अच्छे प्रकार (मादयस्वा) आनन्द करो वा आनन्द कराओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा अपने ऐश्वर्य्य से सम्पूर्ण प्रजाओं की न्याय से रक्षा करता है, वह प्रशंसित, अधिक अवस्थावाला और आनन्दयुक्त वा आनन्द करानेवाला भी होता है ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और सोम के रस का गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशः सन् किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे शतक्रतो इन्द्र ! ते तन्वे यस्सोमोऽर्वाङ् प्र भवाति तं त्वं याहि। यन्त्वा वयमाह्वयामसि स त्वं सुतेष्वस्मान् प्राव पृतनासु विक्ष्वरं मादयस्वा ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ह्वयामसि) आह्वयामः (त्वा) त्वाम् (आ) (इन्द्र) सर्वतो रक्षक (याहि) गच्छ (अर्वाङ्) योऽर्वाग् गच्छति सः (अरम्) अलम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने रः। (ते) तव (सोमः) महौषध्यादिरसः (तन्वे) शरीराय (भवाति) भवेत् (शतक्रतो) असंख्यप्रज्ञ उत्तमकर्मन् वा (मादयस्वा) आनन्दाऽऽनन्दय वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुतेषु) निष्पन्नेष्वैश्वर्येषु (प्र) (अस्मान्) (अव) रक्ष (पृतनासु) मनुष्येषु सेनासु वा। पृतना इति मनुष्यनाम। (निघं०२.३) (प्र) (विक्षु) प्रजासु ॥५॥
भावार्थभाषाः - यो राजा स्वैश्वर्येण सर्वाः प्रजा न्यायेन रक्षति स प्रशंसितश्चिरायुरानन्दित आनन्दयिता च भवतीति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजसोमगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकचत्वारिंशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा आपल्या ऐश्वर्याने संपूर्ण प्रजेचे न्यायाने रक्षण करतो तो प्रशंसित, दीर्घायू व आनंदी किंवा आनंदी करणारा असतो. ॥ ५ ॥