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अ॒यमु॑शा॒नः पर्यद्रि॑मु॒स्रा ऋ॒तधी॑तिभिर्ऋत॒युग्यु॑जा॒नः। रु॒जदरु॑ग्णं॒ वि व॒लस्य॒ सानुं॑ प॒णीँर्वचो॑भिर॒भि यो॑ध॒दिन्द्रः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam uśānaḥ pary adrim usrā ṛtadhītibhir ṛtayug yujānaḥ | rujad arugṇaṁ vi valasya sānum paṇīm̐r vacobhir abhi yodhad indraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। उ॒शा॒नः। परि॑। अद्रि॑म्। उ॒स्राः। ऋ॒तधी॑तिऽभिः। ऋ॒त॒ऽयुक्। यु॒जा॒नः। रु॒जत्। अरु॑ग्णम्। वि। व॒लस्य॑। सानु॑म्। प॒णीन्। वचः॑ऽभिः। अ॒भि। यो॒ध॒त्। इन्द्रः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:39» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (अयम्) यह (ऋतधीतिभिः) जल के धारण करनेवाले गुणों से (उस्राः) किरणों को (युजानः) धारण करता हुआ (इन्द्रः) सूर्य्य (अद्रिम्) मेघ को (परि, रुजत्) विभाग करता है और (वलस्य) मेघ के (सानुम्) शिखर के आकार मेघ को नाश करने को (अभि, वि, योधत्) सब ओर से विशेष कर युद्ध करता है, वैसे (ऋतयुक्) सत्य से युक्त होनेवाला (उशानः) कामना करता हुआ (वचोभिः) वचनों से उत्तम जनों को (अरुग्णम्) रोगरहित और (पणीन्) प्रशंसा करने योग्य व्यवहारों को सिद्ध कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जैसे सूर्य्य अपनी किरणों से भूमि से जल का आकर्षण कर धारण कर और मेघ के आकार का नाश करके पृथिवी के ऊपर गिराय सम्पूर्ण व्यवहारों को सिद्ध करता है, वैसे ही विद्वानों से श्रेष्ठ विद्याओं का आकर्षण कर, धारण करके उत्तम विद्यार्थियों में वर्षाय और अविद्या का नाश करके विज्ञान से धर्म्म, अर्थ काम और मोक्ष के व्यवहारों को सिद्ध करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथाऽयमृतधीतिभिरुस्रा युजान इन्द्रोऽद्रिं परि रुजद्वलस्य सानुं हन्तुमभि वि योधत् तथर्तयुगुशानो वचोभिरुत्तमं जनमरुग्णं पणींश्च साध्नुहि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (उशानः) कामयमानः (परि) सर्वतः (अद्रिम्) मेघम् (उस्राः) किरणान् (ऋतधीतिभिः) जलधारकैर्गुणैः (ऋतयुक्) य ऋतेन सत्येन युनक्ति (युजानः) धारयन् (रुजत्) भनक्ति (अरुग्णम्) रोगरहितम् (वि) (वलस्य) मेघस्य। वल इतिमेघनाम। (निघं०१.१०) (सानुम्) शिखराकारं घनम् (पणीन्) प्रशंसनीयान् व्यवहारान् (वचोभिः) वचनैः (अभि) (योधत्) युध्यते (इन्द्रः) सूर्य्यः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा सूर्यः स्वरश्मिभिर्भूमेर्जलमाकृष्य धृत्वा मेघाकारं हत्वा पृथिव्यां निपात्य सर्वान् व्यवहारान्त्साध्नोति तथैव विद्वद्भ्यः शुभा विद्या आकृष्य धृत्वोत्तमेषु विद्यार्थिषु वर्षित्वाऽविद्यां हत्वा विज्ञानेन धर्मार्थकाममोक्षव्यवहारान्निष्पादयत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा सूर्य आपल्या किरणांनी भूमीवरील जलाचे आकर्षण करून धारण करतो, मेघांच्या आकाराचा नाश करून पृथ्वीवर पाडतो व संपूर्ण व्यवहार करतो तसेच विद्वानांकडून श्रेष्ठ विद्येचे आकर्षण व धारण करून उत्तम विद्यार्थ्यांवर विद्येची वृष्टी करून अविद्येचा नाश करून विज्ञानाने धर्म, अर्थ, काम मोक्षाबाबतचे व्यवहार करा. ॥ २ ॥