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दू॒राच्चि॒दा व॑सतो अस्य॒ कर्णा॒ घोषा॒दिन्द्र॑स्य तन्यति ब्रुवा॒णः। एयमे॑नं दे॒वहू॑तिर्ववृत्यान्म॒द्र्य१॒॑गिन्द्र॑मि॒यमृ॒च्यमा॑ना ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dūrāc cid ā vasato asya karṇā ghoṣād indrasya tanyati bruvāṇaḥ | eyam enaṁ devahūtir vavṛtyān madryag indram iyam ṛcyamānā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दू॒रात्। चि॒त्। आ। व॒स॒तः॒। अ॒स्य॒। कर्णा॑। घोषा॑त्। इन्द्र॑स्य। त॒न्य॒ति॒। ब्रु॒वा॒णः। आ। इ॒यम्। ए॒न॒म्। दे॒वऽहू॑तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। म॒द्र्य॑क्। इन्द्र॑म्। इ॒यम्। ऋ॒च्यमा॑ना ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:38» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या ग्रहण करके सेवा करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (अस्य) इस (इन्द्रस्य) राजा के (दूरात्) दूर से (चित्) भी (वसतः) निवास करते हुए के (कर्णा) दोनों कान (घोषात्) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी से जो (आ, तन्यति) अच्छे प्रकार शब्दित करता है और जो (देवहूतिः) विद्वानों से प्रशंसा की गई (इयम्) यह वाणी (एनम्) इस (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्य से युक्त विद्वान् को (आ) चारों ओर से (ववृत्यात्) वर्त्तित करे और (इयम्) यह (ऋच्यमाना) स्तुति की गई और जो (मद्र्यक्) मुझ सरीका (ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ उसको वर्त्ते, उसकी आप लोग सेवा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिसका आत्मा श्रोत्रों के द्वारा विद्या से तृप्त होवे और जिसको सम्पूर्ण विद्या से युक्त वाणी प्राप्त होवे, उसी का उत्तम प्रकार सेवन करके पूर्ण विद्या को प्राप्त हूजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं गृहीत्वा सेवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्यास्येन्द्रस्य दूराच्चिद्वसतः कर्णा घोषाद्य आतन्यति या देवहूतिरियमेनमिन्द्रमाऽऽववृत्यादियमृच्यमाना यश्च मद्र्यग् ब्रुवाणस्तं ववृत्यात् तं ताञ्च यूयं सेवध्वम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दूरात्) (चित्) अपि (आ) समन्तात् (वसतः) निवसतः (अस्य) (कर्णा) श्रोत्रे (घोषात्) सुशिक्षिताया वाचः (इन्द्रस्य) राज्ञः (तन्यति) शब्दायते (ब्रुवाणः) उपदिशन् (आ) (इयम्) वाक् (एनम्) विद्वांसम् (देवहूतिः) देवैर्विद्वद्भिः प्रशंसिता (ववृत्यात्) वर्त्तयेत् (मद्र्यक्) मत्सदृशः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (इयम्) (ऋच्यमाना) स्तूयमाना ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्यात्मा श्रोत्रद्वारा विद्यातृप्तो भवेद्यं सर्वा विद्यायुक्ता वाक् प्राप्नुयात् तमेव संसेव्य पूर्णां विद्यां प्राप्नुत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्याचा आत्मा श्रोत्राद्वारे विद्येने तृप्त होतो व ज्याला संपूर्ण विद्येने युक्त वाणी प्राप्त होते त्याचेच उत्तम प्रकारे ग्रहण करून पूर्ण विद्या प्राप्त करा. ॥ २ ॥