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अस्मा॑ ए॒तद्दि॒व्य१॒॑र्चेव॑ मा॒सा मि॑मि॒क्ष इन्द्रे॒ न्य॑यामि॒ सोमः॑। जनं॒ न धन्व॑न्न॒भि सं यदापः॑ स॒त्रा वा॑वृधु॒र्हव॑नानि य॒ज्ञैः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā etad divy arceva māsā mimikṣa indre ny ayāmi somaḥ | janaṁ na dhanvann abhi saṁ yad āpaḥ satrā vāvṛdhur havanāni yajñaiḥ ||

पद पाठ

अस्मै॑। ए॒तत्। दि॒वि। अ॒र्चाऽइ॑व। मा॒सा। मि॒मि॒क्षः। इन्द्रे॑। नि। अ॒या॒मि॒। सोमः॑। जन॑म्। न। धन्व॑न्। अ॒भि। सम्। यत्। आपः॑। स॒त्राः। व॒वृ॒धुः॒। हव॑नानि। य॒ज्ञैः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:34» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जिस (दिवि) सुन्दर शुद्ध व्यवहार में (इन्द्रे) दुष्टों के नाश करनेवाले राजा के होने पर (मासा) चैत्र आदि महीने (वावृधुः) बढ़ते हैं और (यज्ञैः) विद्वानों के सत्कारों से (अर्चेव) सत्क्रिया के समान (सत्रा) सत्य कारण से (यत्) जो (हवनानि) दान आदि कर्म्म बढ़ते हैं तथा (धन्वन्) बालुका से युक्त स्थान में (आपः) जल (जनम्) मनुष्य को (न) जैसे वैसे (सम्, अभि) उत्तम प्रकार चारों ओर से बढ़ते हैं (एतत्) यह (अस्मै) इसके लिये (सोमः) उत्पन्न करनेवाला मैं जैसे (नि, अयामि) निरन्तर प्राप्त होता हूँ, वैसे आप इसको (मिमिक्षः) सींचिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सत्कार करने योग्य का सत्कार और निर्जल स्थान में हुए को जल का मिलना सुखकारक होता है, वैसे ही यज्ञ का अनुष्ठान और श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य सब के आनन्दकारक होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यस्मिन् दिवीन्द्रे मासा वावृधुर्यज्ञैरर्चेव सत्रा यद्धवनानि वावृधुर्धन्वन्नापो जनं न समभि वावृधुरेतदस्मै सोमोऽहं यथा न्ययामि तथा त्वमेनं मिमिक्षः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) (एतत्) (दिवि) कमनीये शुद्धे व्यवहारे (अर्चेव) सत्क्रियेव (मासा) चैत्राद्याः (मिमिक्षः) संसिञ्च (इन्द्रे) दुष्टविदारके राजनि (नि) नितराम् (अयामि) प्राप्नोमि (सोमः) यः सुनोति सः (जनम्) (न) इव (धन्वन्) बालुकायुक्ते स्थले (अभि) (सम्) (यत्) यानि (आपः) जलानि (सत्रा) सत्येन कारणेन (वावृधुः) वर्धन्ते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (हवनानि) दानादीनि कर्माणि (यज्ञैः) विद्वत्सत्क्रियाभिः ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सत्कर्त्तव्यस्य सत्कारो निर्जलदेशे भवस्योदकप्राप्तिः सुखकारिणी भवति तथैव यज्ञानुष्ठानं दिव्यमैश्वर्यं च सर्वेषामानन्दकरे भवतः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सत्कार करण्यायोग्याचा सत्कार करणे व निर्जल स्थानी जलप्राप्ती होणे सुखकारक असते तसेच यज्ञाचे अनुष्ठान व श्रेष्ठ ऐश्वर्य सर्वांना आनंददायक असतात. ॥ ४ ॥