वांछित मन्त्र चुनें

नू॒नं न॑ इन्द्राप॒राय॑ च स्या॒ भवा॑ मृळी॒क उ॒त नो॑ अ॒भिष्टौ॑। इ॒त्था गृ॒णन्तो॑ म॒हिन॑स्य॒ शर्म॑न्दि॒वि ष्या॑म॒ पार्ये॑ गो॒षत॑माः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nūnaṁ na indrāparāya ca syā bhavā mṛḻīka uta no abhiṣṭau | itthā gṛṇanto mahinasya śarman divi ṣyāma pārye goṣatamāḥ ||

पद पाठ

नू॒नम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। अ॒प॒राय॑। च॒। स्याः॒। भव॑। मृ॒ळी॒कः। उ॒त। नः॒। अ॒भिष्टौ॑। इ॒त्था। गृ॒णन्तः॑। म॒हिन॑स्य। शर्म॑न्। दि॒वि। स्या॒म॒। पार्ये॑। गो॒सऽत॑माः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:33» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुःखों के नाश करनेवाले ! आप (नः) हम लोगों के (मृळीकः) सुखकारक (भवा) हूजिये और (उत) भी (अपराय) अन्य के लिये (नूनम्) निश्चय कर सुखकारक (स्याः) हूजिये और (नः) हम लोगों के (अभिष्टौ) अपेक्षित सुख में (च) भी प्रवृत्त हूजिये (इत्था) इस कारण से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (गोषतमाः) वाणियों को अत्यन्त सेवनेवाले हम लोग (महिनस्य) बड़े आप के (पार्ये) पूर्ण करने और (दिवि) कामना करने योग्य (शर्मन्) गृह में (स्याम) होवें ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा अपने और दूसरे का पक्षपाती न होकर प्रजा के रक्षण में यत्न करनेवाला होवे तो सम्पूर्ण प्रजा प्रेम के स्थान में बँधी हुई होकर राजा की दिन-रात स्तुति करे ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेंतीसवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कथं वर्तेत इत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वां नो मृळीको भवा, उतापराय नूनं मृळीकः स्या नोऽभिष्टौ च प्रवृत्तो भवेत्था गृणन्तो गोषतमा वयं महिनस्य ते पार्ये दिवि शर्मन्त्स्याम ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नूनम्) निश्चितम् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) दुःखविदारक (अपराय) अन्यस्मै (च) (स्याः) भूयाः (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मृळीकः) सुखकर्त्ता (उत) अपि (नः) अस्माकम् (अभिष्टौ) इच्छितसुखे (इत्था) अस्मात्कारणात् (गृणन्तः) स्तुवन्तः (महिनस्य) महतः (शर्मन्) शर्मणि गृहे (दिवि) कमनीये (स्याम) भवेम (पार्ये) पूरयितव्ये (गोषतमाः) ये गा वाचः सनन्ति सेवन्ते ततोऽतिशयिताः ॥५॥
भावार्थभाषाः - यदि राजा स्वस्य परस्य वा पक्षपात्यभूत्वा प्रजारक्षणे यत्नवान् भवेत्तर्हि सर्वाः प्रजाः प्रेमास्पदबद्धाः सत्यो राजानमहर्निशं स्तूयुरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा भेदभाव न करता प्रजेच्या रक्षणासाठी प्रयत्न करतो तेथे सर्व प्रजा प्रेमाने राजाची रात्रंदिवस स्तुती करते. ॥ ५ ॥