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स स॑त्यसत्वन्मह॒ते रणा॑य॒ रथ॒मा ति॑ष्ठ तुविनृम्ण भी॒मम्। या॒हि प्र॑पथि॒न्नव॒सोप॑ म॒द्रिक्प्र च॑ श्रुत श्रावय चर्ष॒णिभ्यः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa satyasatvan mahate raṇāya ratham ā tiṣṭha tuvinṛmṇa bhīmam | yāhi prapathinn avasopa madrik pra ca śruta śrāvaya carṣaṇibhyaḥ ||

पद पाठ

सः। स॒त्य॒ऽस॒त्व॒न्। म॒ह॒ते। रणा॑य। रथ॑म्। आ। ति॒ष्ठ॒। तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒। भी॒मम्। या॒हि। प्र॒ऽप॒थि॒न्। अव॑सा। उप॑। म॒द्रिक्। प्र। च॒। श्रु॒त॒। श्र॒व॒य॒। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:31» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सत्यसत्वन्) शुद्ध अन्तःकरण आदि इन्द्रियों युक्त (प्रपथिन्) उत्तम मार्गवाले और (तुविनृम्ण) बहुत धन से युक्त ! (सः) वह आप (महते) बड़े (रणाय) सङ्ग्राम के लिये (रथम्) सुन्दर वाहन पर (आ, तिष्ठ) स्थित हूजिये और (अवसा) रक्षण आदि से (भीमम्) भयङ्कर सङ्ग्राम को (उप, याहि) प्राप्त हूजिये तथा (मद्रिक्) मेरे सम्मुख हुए विद्वानों से (श्रुत) सुनिये (चर्षणिभ्यः, च) और मनुष्यों के लिये (प्र, श्रावय) सुनाइये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा सत्यवादियों से राजनीति के कृत्य को सुनकर अन्यों को सुना कर शुद्धचित्तवाला सब के रक्षण के लिये दुष्टों का पराजय करता है, वही बहुत लक्ष्मीवाला होता है ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र और राजा के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यही इकतीसवाँ सूक्त और तृतीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे सत्यसत्वन् प्रपथिंस्तुविनृम्ण ! स त्वं महते रणाय रथमा तिष्ठाऽवसा भीमं सङ्ग्राममुप याहि मद्रिक् सन् विद्वद्भ्यः श्रुत चर्षणिभ्यश्च प्र श्रावय ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (सत्यसत्वन्) सत्यानि सत्वान्यन्तःकरणादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ (महते) (रणाय) सङ्ग्रामाय (रथम्) रमणीयं यानम् (आ) (तिष्ठ) (तुविनृम्ण) बहुधनयुक्त (भीमम्) भयङ्करम् (याहि) (प्रपथिन्) प्रकृष्टः पन्था विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (अवसा) रक्षणादिना (उप) (मद्रिक्) यो मामञ्चति मदभिमुखः (प्र) (च) (श्रुत) शृणु (श्रावय) (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः ॥५॥
भावार्थभाषाः - यो राजा सत्यवादिभ्यो राजनीतिकृत्यं श्रुत्वाऽन्येभ्यः श्रावयित्वा शुद्धात्मा सन्त्सर्वस्य रक्षणाय दुष्टपराजयं करोति स एवातुलश्रीको भवतीति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकत्रिंशत्तमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा सत्यवादी लोकांकडून राजनीतीचे कार्य ऐकून इतरांना ऐकवितो, शुद्ध चित्त करून सर्वांच्या रक्षणासाठी दुष्टांचा पराजय करतो तोच अत्यंत श्रीमंत होतो. ॥ ५ ॥