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स ईं॑ रे॒भो न प्रति॑ वस्त उ॒स्राः शो॒चिषा॑ रारपीति मि॒त्रम॑हाः। नक्तं॒ य ई॑मरु॒षो यो दिवा॒ नॄनम॑र्त्यो अरु॒षो यो दिवा॒ नॄन् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa īṁ rebho na prati vasta usrāḥ śociṣā rārapīti mitramahāḥ | naktaṁ ya īm aruṣo yo divā nṝn amartyo aruṣo yo divā nṝn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। ई॒म्। रे॒भः। न। प्रति॑। व॒स्ते॒। उ॒स्राः। शो॒चिषा॑। र॒र॒पी॒ति॒। मि॒त्रऽम॑हाः। नक्त॑म्। यः। ई॒म्। अ॒रु॒षः। यः। दिवा॑। नॄन्। अम॑र्त्यः। अ॒रु॒षः। यः। दिवा॑। नॄन् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:3» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (अरुषः) रक्तगुण के सहित वर्त्तमान (नक्तम्) रात्रि को (ईम्) सब ओर से (यः) जो (अमर्त्यः) अपने रूप से मृत्युरहित (दिवा) कामना से (नॄन्) नायक मनुष्यों को (यः) जो (अरुषः) मर्मस्थलों में वर्त्तमान हुआ (दिवा) कामना वा प्रीति के साथ (नॄन्) नायक जनों के साथ मिलता है (सः) वह (ईम्) जल और (रेभः) आदर करने योग्य विद्वान् वा विद्वानों का सत्कार करनेवाला (न) जैसे वैसे (शोचिषा) दीप्ति के सहित वर्त्तमान (उस्राः) किरणों को (प्रति, वस्ते) आच्छादित करता है और (मित्रमहाः) मित्रों का आदर करनेवाला (रारपीति) अत्यन्त शब्द करता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य जल का आकर्षण कर और उस जल को वर्षाय के प्राणियों के लिये सुख देता है, वैसे विद्वान् पुरुष गुणों का आकर्षण कर और गुणों को दे करके सब जिज्ञासु जनों को सुख देता है ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

योऽरुषो नक्तमीं योऽमर्त्यो दिवा नॄन् योऽरुषो दिवा नॄन् सङ्गच्छते स ईं रेभो न शोचिषोस्राः प्रति वस्ते मित्रमहा रारपीति ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (ईम्) उदकम् (रेभः) पूजनीयो विद्वान् विदुषां सत्कर्त्ता वा। रेभतीत्यर्चतिकर्म्मा। (निघं०३.१४) (न) इव (प्रति) (वस्ते) आच्छादयति (उस्राः) किरणान् (शोचिषा) दीप्त्या सह (रारपीति) भृशं शब्दयति (मित्रमहाः) यो मित्राणि पूजयति (नक्तम्) रात्रिम् (यः) (ईम्) सर्वतः (अरुषः) रक्तगुणविशिष्टः (यः) (दिवा) कामनया (नॄन्) नायकान् (अमर्त्यः) स्वरूपेण मृत्युरहितः (अरुषः) योऽरुष्षु मर्मसु सीदति सः (यः) (दिवा) कामनया प्रीत्या सह वा (नॄन्) नेतॄन् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सूर्यो जलमाकृष्य वर्षयित्वा प्राणिभ्यः सुखं ददाति तथा विद्वान् गुणानाकृष्य प्रदाय सर्वान् जिज्ञासून् सुखयति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा सूर्य जलाला आकर्षित करून वृष्टीद्वारे प्राण्यांना सुख देतो. तसा विद्वान पुरुष गुण ग्रहण करून ते इतरांना देतो व सर्व जिज्ञासू लोकांना सुखी करतो. ॥ ६ ॥