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ई॒जे य॒ज्ञेभिः॑ शश॒मे शमी॑भिर्ऋ॒धद्वा॑राया॒ग्नये॑ ददाश। ए॒वा च॒न तं य॒शसा॒मजु॑ष्टि॒र्नांहो॒ मर्तं॑ नशते॒ न प्रदृ॑प्तिः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

īje yajñebhiḥ śaśame śamībhir ṛdhadvārāyāgnaye dadāśa | evā cana taṁ yaśasām ajuṣṭir nāṁho martaṁ naśate na pradṛptiḥ ||

पद पाठ

ई॒जे। य॒ज्ञेभिः॑। श॒श॒मे। शमी॑भिः। ऋ॒धत्ऽवा॑राय। अ॒ग्नये॑। द॒दा॒श॒। ए॒व। च॒न। तम्। य॒शसा॑म्। अजु॑ष्टिः। न। अंहः॑। मर्त॑म्। न॒श॒ते॒। न। प्रऽदृ॑प्तिः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:3» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्वान् (यज्ञेभिः) विद्वानों की सेवा और सत्य भाषण आदिकों के साथ (ईजे) उत्तम प्रकार मिलता है और (शमीभिः) शुभ कर्म्मों से (शशमे) शान्त होता है (ऋधद्वाराय) उत्तम प्रकार बढ़ानेवाला सत्य स्वीकार करने योग्य व्यवहार जिसका उस (अग्नये) अग्नि के सदृश वर्त्तमान सुपात्र के लिये (ददाश) देता है (तम्) उसको (एवा) ही (चन) निश्चय से (मर्त्तम्) मनुष्य को और (यशसाम्) धनों वा अन्नों का (अजुष्टिः) असेवन (न) जैसे वैसे (अंहः) अपराध (न) नहीं (नशते) प्राप्त होता है और (प्रदृप्तिः) अत्यन्त मोह प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सत्यभाषण आदि धर्म्म के अनुष्ठान करनेवाले योगी अभय देनेवाले हैं, वे पाप और मोह का त्याग करके विज्ञान को प्राप्त होकर सुखी होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

यो विद्वान् यज्ञेभिरीजे शमीभिः शशमे। ऋधद्वारायाऽग्नये ददाश तमेवा चन मर्त्तं यशसामजुष्टिर्नांहो न नशते प्रदृप्तिः प्राप्नोति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ईजे) सङ्गच्छते (यज्ञेभिः) विद्वत्सेवासत्यभाषणादिभिः (शशमे) शाम्यति (शमीभिः) शुभैः कर्मभिः (ऋधद्वाराय) ऋधत्संवर्धकः सत्यो वारस्स्वीकरणीयो व्यवहारो यस्य तस्मै (अग्नये) अग्निरिव वर्त्तमानाय सुपात्राय (ददाश) ददाति (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चन) अपि (तम्) (यशसाम्) धनानामन्नानां वा (अजुष्टिः) असेवनम् (न) इव (अंहः) अपराधः पापम् (मर्त्तम्) मनुष्यम् (नशते) प्राप्नोति (न) निषेधे (प्रदृप्तिः) प्रकृष्टो मोहः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये सत्यभाषणादिधर्मानुष्ठाना योगिनोऽभयदातारः सन्ति ते पापं मोहं च त्यक्त्वा विज्ञानं प्राप्य सुखिनो भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सत्यभाषण इत्यादी धर्माचे अनुष्ठान करणारे, योगी, अभय देणारे असतात ते पाप व मोहाचा त्याग करून विज्ञान प्राप्त करून सुखी होतात. ॥ २ ॥