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इन्द्रं॑ वो॒ नरः॑ स॒ख्याय॑ सेपुर्म॒हो यन्तः॑ सुम॒तये॑ चका॒नाः। म॒हो हि दा॒ता वज्र॑हस्तो॒ अस्ति॑ म॒हामु॑ र॒ण्वमव॑से यजध्वम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraṁ vo naraḥ sakhyāya sepur maho yantaḥ sumataye cakānāḥ | maho hi dātā vajrahasto asti mahām u raṇvam avase yajadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। वः॒। नरः॑। स॒ख्याय॑। से॒पुः॒। म॒हः। यन्तः॑। सु॒ऽम॒तये॑। च॒का॒नाः। म॒हः। हि। दा॒ता। वज्र॑ऽहस्तः। अस्ति॑। म॒हाम्। ऊँ॒ इति॑। र॒ण्वम्। अव॑से। य॒ज॒ध्व॒म् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:29» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले उनतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नायक जनो ! जो (महः) बड़े विज्ञान को (यन्तः) प्राप्त होते और (सुमतये) उत्तम बुद्धि के लिये (चकानाः) कामना करते हुए (वः) आप लोगों के (सख्याय) मित्रपने के लिये (इन्द्रम्) ऐश्वर्य के करनेवाले को (सेपुः) शपथ करते हैं तथा (हि) जिस कारण जो (महः) बड़े विज्ञान का (दाता) देनेवाले और (वज्रहस्तः) शस्त्र और अस्त्रों से युक्त हाथोंवाला (अस्ति) है उस (रण्वम्) रमणीय उपदेशक (महाम्) महान् महाशय सर्वाध्यक्ष का (उ) ही (अवसे) रक्षण आदि के लिये (यजध्वम्) मिलिये वा सत्कार करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो आप लोगों के साथ मित्रत्व के लिये दृढ़ शपथ करके तन, मन और धनों से उपकार के लिये प्रयत्न करते हैं, उनका आप लोग सर्वदा सत्कार करिये तथा इनके साथ मित्रपन में बर्ताव करिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे नरो ! ये महो यन्तः सुमतये चकाना वः सख्यायेन्द्रं सेपुर्हि यो महो दाता वज्रहस्तोऽस्ति तं रण्वं महामु अवसे रण्वं यजध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) (वः) युष्माकम् (नरः) नायकाः (सख्याय) मित्रभावाय (सेपुः) शपथं कुर्युः (महः) महद्विज्ञानम् (यन्तः) (सुमतये) उत्तमप्रज्ञायै (चकानाः) कामयमानाः (महः) महतो विज्ञानस्य (हि) यतः (दाता) (वज्रहस्तः) शस्त्रास्त्रपाणिः (अस्ति) (महाम्) महान्तं महाशयं सर्वाध्यक्षम् (उ) (रण्वम्) रमणीयमुपदेशकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (यजध्वम्) सङ्गच्छध्वं सत्कुरुत ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये युष्माकं मित्रत्वाय दृढं शपथं कृत्वा तनुमनोधनैरुपकाराय यतन्ते तान् यूयं सर्वदा सत्कुरुत तैः सह सखित्वे वर्त्तध्वम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, मैत्री, दाता, योद्धा तसेच ईश्वराचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे तुमच्याबरोबर शपथपूर्वक मैत्री करतात. तन, मन, धनाने उपकार करण्याचा प्रयत्न करतात त्यांचा तुम्ही नेहमी सत्कार करा व त्यांच्याबरोबर मैत्रीने वागा. ॥ १ ॥