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वधी॒दिन्द्रो॑ व॒रशि॑खस्य॒ शेषो॑ऽभ्याव॒र्तिने॑ चायमा॒नाय॒ शिक्ष॑न्। वृ॒चीव॑तो॒ यद्ध॑रियू॒पीया॑यां॒ हन्पूर्वे॒ अर्धे॑ भि॒यसाप॑रो॒ दर्त् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vadhīd indro varaśikhasya śeṣo bhyāvartine cāyamānāya śikṣan | vṛcīvato yad dhariyūpīyāyāṁ han pūrve ardhe bhiyasāparo dart ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वधी॑त्। इन्द्रः॑। व॒रऽशि॑खस्य। शेषः॑। अ॒भि॒ऽआ॒व॒र्तिने॑। चा॒य॒मा॒नाय॑। शिक्ष॑न्। वृ॒चीव॑तः। यत्। ह॒रि॒यू॒पीया॑याम्। हन्। पूर्वे॑। अर्धे॑। भि॒यसा॑। अप॑रः। दर्त् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:27» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:23» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (शेषः) अवशिष्ट (इन्द्रः) सूर्य (वृचीवतः) अविद्या का छेदन प्रशंसित जिसके उस (वरशिखस्य) श्रेष्ठ शिखावाले के समान मेघ के (अभ्यावर्त्तिने) चारों ओर घूमनेवाले के लिये जैसे वैसे (चायमानाय) सत्कार करनेवाले के लिये (शिक्षन्) विद्या देता हुआ (भियसा) भय से (हरियूपीयायाम्) विचारशील मनुष्यों की इच्छा करते हुओं की पान क्रिया में (पूर्वे) सन्मुख (अर्द्धे) अर्द्धभाग में (हन्) नाश करता वा (वधीत्) नाश करे (अपरः) अन्य बिजुलीरूप अग्नि उसको (दर्त्) विदीर्ण करता है, वैसे वर्त्तमान उपदेश का हम लोग सत्कार करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पूर्व अवस्था में विद्वानों से विद्या ग्रहण करके बुरे व्यसनों का त्याग करके उत्तमस्वभावयुक्त होते हैं, वे अधर्माचरण से डरते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्यः शेष इन्द्रस्सूर्यो वृचीवतो वरशिखस्याऽभ्यावर्त्तिन इव चायमानाय शिक्षन् भियसा हरियूपीयायां पूर्वेऽर्द्धे हन् वधीत्, अपरो विद्युदग्निस्तं दर्त् दृणाति तथा वर्त्तमानमुपदेशकं वयं सत्कुर्याम ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वधीत्) हन्यात् (इन्द्रः) (वरशिखस्य) वरा शिखा यस्य तद्वत् मेघस्य (शेषः) यः शिष्यते (अभ्यावर्त्तिने) अभ्यावर्तितुं शीलं यस्य तस्मै (चायमानाय) सत्कर्त्रे (शिक्षन्) विद्यां ददन् (वृचीवतः) वृचिरविद्याछेदनं प्रशस्तं यस्य तस्य (यत्) यः (हरियूपीयायाम्) हरीन् मुनीनिच्छतां पीयायां पानक्रियायाम् (हन्) हन्ति (पूर्वे) सम्मुखे (अर्द्धे) (भियसा) भयेन (अपरः) (दर्त्) दृणाति ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः पूर्वे वयसि विद्वद्भ्यो विद्यां गृहीत्वा दुर्व्यसनानि हत्वा सुशीला भवन्ति तेऽधर्माचरणाद् बिभ्यति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे पूर्वावस्थेत विद्वानांकडून विद्या ग्रहण करून वाईट व्यसनांचा त्याग करून उत्तम स्वभावयुक्त होतात ती अधर्माच्या आचरणाला घाबरतात. ॥ ५ ॥