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त्वं श्र॒द्धाभि॑र्मन्दसा॒नः सोमै॑र्द॒भीत॑ये॒ चुमु॑रिमिन्द्र सिष्वप्। त्वं र॒जिं पिठी॑नसे दश॒स्यन्ष॒ष्टिं स॒हस्रा॒ शच्या॒ सचा॑हन् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ śraddhābhir mandasānaḥ somair dabhītaye cumurim indra siṣvap | tvaṁ rajim piṭhīnase daśasyan ṣaṣṭiṁ sahasrā śacyā sacāhan ||

पद पाठ

त्वम्। श्र॒द्धाभिः॑। म॒न्द॒सा॒नः। सोमैः॑। द॒भीत॑ये। चुमु॑रिम्। इ॒न्द्र॒। सि॒स्व॒प्। त्वम्। र॒जिम्। पिठी॑नसे। द॒श॒स्यन्। ष॒ष्टिम्। स॒हस्रा॑। शच्या॑। सचा॑। अ॒ह॒न् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:26» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) राजन् ! (त्वम्) आप (श्रद्धाभिः) सत्य की धारणाओं से और (सोमैः) ऐश्वर्यों से (मन्दसानः) आनन्द करते हुए (दभीतये) दुःख के नाश के लिये (चुमुरिम्) भोजन करनेवाले को (सिष्वप्) सुलाइये और (त्वम्) आप (शच्या) बुद्धि वा कर्म के (सचा) साथ (पिठीनसे) पिठी के सदृश नासिका जिसकी उसके लिये (रजिम्) पङ्क्ति (षष्टिम्) साठ (सहस्रा) हजार (दशस्यन्) देता हुआ जैसे सूर्य मेघ का (अहन्) नाश करता है, वैसे शत्रुओं का हनन कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! सदा ही पूर्ण प्रीति और न्याय से प्रजापालन करो और हजारों धार्मिक विद्वानों को अधिकारों में स्थापित करके यश बढ़ाओ ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र राजँस्त्वं श्रद्धाभिः सोमैर्मन्दसानो दभीतये चुमुरिं सिष्वप् त्वं शच्या सचा पिठीनसे रजिं षष्टिं सहस्रा दशस्यन् यथा सूर्य्यो मेघमहँस्तथा शत्रून् जहि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (श्रद्धाभिः) सत्यस्य धारणाभिः (मन्दसानः) आनन्दन् (सोमैः) ऐश्वर्यैः (दभीतये) दुःखहिंसनाय (चुमुरिम्) अत्तारम् (इन्द्र) राजन् (सिष्वप्) स्वापय (त्वम्) (रजिम्) (पिठीनसे) पिठीव नासिका यस्य तस्मै (दशस्यन्) प्रयच्छन् (षष्टिम्) (सहस्रा) सहस्राणि (शच्या) प्रज्ञया कर्मणा वा (सचा) (अहन्) हन्ति ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे राजन्त्सदैव पूर्णप्रीत्या न्यायेन च प्रजापालनं कुर्य्याः सहस्राणि धार्मिकान् विदुषोऽधिकारेषु संस्थाप्य कीर्तिं वर्धय ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू सदैव प्रेमाने व न्यायाने प्रजापालन कर. हजारो धार्मिक विद्वानांना अधिकारी बनवून कीर्ती वाढव. ॥ ६ ॥