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त्वं तदु॒क्थमि॑न्द्र ब॒र्हणा॑ कः॒ प्र यच्छ॒ता स॒हस्रा॑ शूर॒ दर्षि॑। अव॑ गि॒रेर्दासं॒ शम्ब॑रं ह॒न्प्रावो॒ दिवो॑दासं चि॒त्राभि॑रू॒ती ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tad uktham indra barhaṇā kaḥ pra yac chatā sahasrā śūra darṣi | ava girer dāsaṁ śambaraṁ han prāvo divodāsaṁ citrābhir ūtī ||

पद पाठ

त्वम्। तत्। उ॒क्थम्। इ॒न्द्र॒। ब॒र्हणा॑। क॒रिति॑ कः। प्र। य॒त्। श॒ता। स॒हस्रा॑। शू॒र॒। दर्षि॑। अव॑। गि॒रेः। दास॑म्। शम्ब॑रम्। ह॒न्। प्र। आ॒वः॒। दिवः॑ऽदासम्। चि॒त्राभिः॑। ऊ॒ती ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:26» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सुख के देनेवाले राजन् ! (यत्) जिससे (त्वम्) आप (चित्राभिः) अद्भुत (ऊती) रक्षाओं से (तत्) उस (उक्थम्) प्रशंसनीय वचन को (बर्हणा) बढ़ने से (कः) करें और हे (शूर) शत्रुओं के नाश करनेवाले ! (शता) सैकड़ों और (सहस्रा) हजारों का (प्र, दर्षि) नाश करते हो और (गिरेः) मेघ के (दासम्) सेवक और (शम्बरम्) कल्याण करनेवाले का (अव, हन्) और सूर्य जैसे वैसे नाश करते हो वह आप (दिवोदासम्) प्रकाश के समान उत्पन्न दानशील अर्थात् दान देनेवाले की (प्र, आवः) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप सर्वदा प्रजा की वृद्धि, दुष्टों का नाश और विद्वानों की सेवा करो, जिससे असङ्ख्य सुख होवे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र राजन् ! यद्यतस्त्वं चित्राभिरूती तदुक्थं बर्हणा कः। हे शूर ! शता सहस्रा प्र दर्षि गिरेर्दासं शम्बरमव हन्त्सूर्य इव हंसि तथा दिवोदासं प्रावः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (तत्) (उक्थम्) प्रशंसनीयं वचनम् (इन्द्र) सुखप्रद (बर्हणा) वर्धनेन (कः) कुर्याः (प्र) (यत्) यतः (शता) शतानि (सहस्रा) सहस्राणि (शूर) शत्रूणां हिंसक (दर्षि) विदृणासि (अव) (गिरेः) मेघस्य (दासम्) सेवकम् (शम्बरम्) शङ्करम् (हन्) हंसि (प्र) (आवः) रक्ष (दिवोदासम्) प्रकाशवज्जातदानशीलम् (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊती) रक्षाभिः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! भवान्त्सर्वदा प्रजावर्धनं दुष्टनिक्रन्दनं विद्वत्सेवां च करोतु यतोऽसङ्ख्यं सुखं स्यात् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू सदैव प्रजेची वृद्धी, दुष्टांचा नाश व विद्वानांची सेवा कर. ज्यामुळे अत्यंत सुख प्राप्त होईल. ॥ ५ ॥