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शूरो॑ वा॒ शूरं॑ वनते॒ शरी॑रैस्तनू॒रुचा॒ तरु॑षि॒ यत्कृ॒ण्वैते॑। तो॒के वा॒ गोषु॒ तन॑ये॒ यद॒प्सु वि क्रन्द॑सी उ॒र्वरा॑सु॒ ब्रवै॑ते ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śūro vā śūraṁ vanate śarīrais tanūrucā taruṣi yat kṛṇvaite | toke vā goṣu tanaye yad apsu vi krandasī urvarāsu bravaite ||

पद पाठ

शूरः॑। वा॒। शूर॑म्। व॒न॒ते॒। शरी॑रैः। त॒नू॒ऽरुचा॑। तरु॑षि। यत्। कृ॒ण्वैते॒ इति॑। तो॒के। वा॒। गोषु॑। तन॑ये। यत्। अ॒प्ऽसु। वि। क्रन्द॑सी॒ इति॑। उ॒र्वरा॑सु। ब्रवै॑ते॒ इति॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:25» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और मन्त्रीजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजजनो ! जैसे (शूरः) शूरवीर पुरुष (तनूरुचा) शरीरों में हुई प्रीति से और (शरीरैः) शरीरों से (तरुषि) दुःख से पार करनेवाले सङ्ग्राम में (शूरम्) शूरवीर जन का (वनते) आदर करता है (वा) वा दोनों (यत्) जिसको (कृण्वैते) करें और (क्रन्दसी) क्रोशते हुए (यत्) जो (तोके) शीघ्र उत्पन्न हुए (तनये) सुकुमार बालक के होने पर (उर्वरासु) पृथिवी आदि के कारणों में (गोषु) वाणियों में (वा) अथवा (अप्सु) जलों में (वि, ब्रवैते) कहें, वैसे आप लोग भी हूजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सङ्ग्राम में शूरजन शूरवीरों का विभाग करके युद्ध करते हैं, वैसे ही राजा और अमात्य श्रेष्ठ और अधमों का विभाग करके अधिकारों में युक्त करके आज्ञा देवें और जैसे खेती की विद्या से खेतीहारों को जनावें, वैसे ही अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्या ग्रहण के लिये ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त करावें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजामात्याश्च किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजजना ! यथा शूरस्तनूरुचा शरीरैस्तरुषि शूरं वनते वा द्वौ यत्कृण्वैते क्रन्दसी सन्तौ यत्तोके तनय उर्वरासु गोषु वाप्सु वि ब्रवैते तथा यूयमपि भवत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शूरः) (वा) (शूरम्) (वनते) सम्भजति (शरीरैः) (तनूरुचा) या तनूषु रुक् प्रीतिस्तया (तरुषि) दुःखात्तारके सङ्ग्रामे (यत्) (कृण्वैते) कुर्याताम् (तोके) सद्यो जातेऽपत्ये (वा) (गोषु) वाणीषु (तनये) सुकुमारे (यत्) (अप्सु) जलेषु (वि) (क्रन्दसी) क्रन्दमानौ विक्रोशन्तौ (उर्वरासु) पृथिव्यादिनिमित्तेषु (ब्रवैते) ब्रूयाताम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सङ्ग्रामे शूराः शूरान् विभज्य युध्यन्ति तथैव राजाऽमात्यांश्च श्रेष्ठानधमांश्च विभज्याऽधिकारेषु नियोज्याज्ञापयेद्यथा कृषिविद्यया कृषीवलान् बोधयेत् तथैव स्वसन्तानान् सुशिक्षया विद्याग्रहणाय ब्रह्मचर्ये प्रवर्त्तयेत् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे युद्धात शूर लोक शूरवीरांना वेगवेगळे नेमून युद्ध करतात तसेच राजा व अमात्यांनी श्रेष्ठ व कनिष्ठ लोकांना पृथक पृथक अधिकार पदावर नेमून त्यांना आज्ञा द्याव्यात. जसे शेतकऱ्यांना शेती विद्येने बोध करता येतो तसेच आपल्या संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्या ग्रहण करण्यासाठी ब्रह्मचर्यात प्रवृत्त करावे. ॥ ४ ॥