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अ॒न्यद॒द्य कर्व॑रम॒न्यदु॒ श्वोऽस॑च्च॒ सन्मुहु॑राच॒क्रिरिन्द्रः॑। मि॒त्रो नो॒ अत्र॒ वरु॑णश्च पू॒षार्यो वश॑स्य पर्ये॒तास्ति॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anyad adya karvaram anyad u śvo sac ca san muhur ācakrir indraḥ | mitro no atra varuṇaś ca pūṣāryo vaśasya paryetāsti ||

पद पाठ

अ॒न्यत्। अ॒द्य। कर्व॑रम्। अ॒न्यत्। ऊँ॒ इति॑। श्वः। अस॑त्। च॒। सत्। मुहुः॑। आ। च॒क्रिः। इन्द्रः॑। मि॒त्रः। नः॒। अत्र॑। वरु॑णः। च॒। पू॒षा। अ॒र्यः। वश॑स्य। प॒रि॒ऽए॒ता। अ॒स्ति॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:24» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्रः) राजा (अद्य) आज (अन्यत्) अन्य (उ) और (श्वः) आनेवाले दिन में (अन्यत्) अन्य (कर्वरम्) करने योग्य कर्म को (आचक्रिः) सब प्रकार से करनेवाला (सत्) हुआ (मुहुः) वारंवार (असत्) होवे वह (च) और (अत्र) इस संसार में (नः) हम लोगों का (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ (पूषा) पुष्टि करनेवाला (अर्यः) स्वामी (च) और (वशस्य) वशवर्ती का (पर्येता) सब ओर से प्राप्तजन (अस्ति) है, वह पूर्ण सुखवाला होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो राजा प्रतिदिन बारबार सत्य कर्म का आचरण करता है, वह सब के न्याय करने में पक्षपात का त्याग करके मित्र के सदृश होता है और सब इसके वश में होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

य इन्द्रो राजाऽद्यान्यदु श्वोऽन्यत् कर्वरमाचक्रिस्सन्मुहुरसत् स चात्र नो मित्रो वरुणः पूषाऽर्य्यश्च वशस्य पर्येतास्ति सोऽलंसुखो भवति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्यत्) (अद्य) (कर्वरम्) कर्त्तव्यं कर्म (अन्यत्) (उ) (श्वः) आगामिनि दिने (असत्) भवेत् (च) (सत्) (मुहुः) वारंवारम् (आचक्रिः) समन्तात् कर्त्ता (इन्द्रः) राजा (मित्रः) (नः) अस्माकम् (अत्र) (वरुणः) श्रेष्ठः (च) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (अर्यः) स्वामी (वशस्य) वशवर्तिनः (पर्य्येता) सर्वतः प्राप्तः (अस्ति) ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो राजा प्रतिदिनं पुनः पुनः सत्कर्माचरति स सर्वेषां न्यायकरणे पक्षपातं विहाय मित्रवद्भवति सर्वे चास्य वशे भवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो राजा प्रत्येक दिवशी सत्य कर्माचे आचरण करतो, तो भेदभाव न करता सर्वांचा न्याय करतो व मित्राप्रमाणे वागतो, त्याला सर्वजण वश होतात. ॥ ५ ॥