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तं वो॑ धि॒या नव्य॑स्या॒ शवि॑ष्ठं प्र॒त्नं प्र॑त्न॒वत्प॑रितंस॒यध्यै॑। स नो॑ वक्षदनिमा॒नः सु॒वह्मेन्द्रो॒ विश्वा॒न्यति॑ दु॒र्गहा॑णि ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ vo dhiyā navyasyā śaviṣṭham pratnam pratnavat paritaṁsayadhyai | sa no vakṣad animānaḥ suvahmendro viśvāny ati durgahāṇi ||

पद पाठ

तम्। वः॒। धि॒या। नव्य॑स्या। शवि॑ष्ठम्। प्र॒त्नम्। प्र॒त्न॒ऽवत्। प॒रि॒ऽतं॒स॒यध्यै॑। सः। नः॒। व॒क्ष॒त्। अ॒नि॒ऽमा॒नः। सु॒ऽवह्मा॑। इन्द्रः॑। विश्वा॑नि। अति॑। दुः॒ऽगहा॑णि ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:22» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसका नित्य ध्यान करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अनिमानः) परिमाण से रहित (सुवह्मा) उत्तम प्रकार चलानेवाला (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त जगदीश्वर (नव्यस्या) अतिशय नवीन (धिया) बुद्धि वा कर्म से (वः) आप लोगों और (नः) हम लोगों के लिये (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुर्गहाणि) दुःख से प्राप्त होने योग्यों को नाश करनेवाले धर्मयुक्त कर्मों को (परितंसयध्यै) चारों ओर से सुशोभा करने के लिये (अति, वक्षत्) अत्यन्त प्राप्त करावे (तम्) उस (शविष्ठम्) अत्यन्त बलवान् (प्रत्नम्) पुरातन को (प्रत्नवत्) प्राचीन के सदृश मान कर हम लोग सेवा करें और (सः) वह भी हम लोग का गुरु हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो परमात्मा हम सब लोगों के सम्पूर्ण दुःखों को बुद्धिदान से दूर करके अधर्माचरण से संकोचित करता है, उस परमात्मा का आत्मा से निरन्तर ध्यान करो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः को नित्यं ध्येय इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽनिमानः सुवह्मेन्द्रो जगदीश्वरो नव्यस्या धिया वो नोऽस्मान् विश्वानि दुर्गहाणि परितंसयध्यै अति वक्षत्तं शविष्ठं प्रत्नं प्रत्नवन्मत्वा वयं सेवेमहि स चाऽस्माकं गुरुः स्यात् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (वः) युष्मान् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (नव्यस्या) अतिशयेन नूतनया (शविष्ठम्) अतिशयेन बलिष्ठम् (प्रत्नम्) पुरातनम् (प्रत्नवत्) प्राचीनवत् (परितंसयध्यै) सर्वतः भूषयितुम् (सः) (नः) अस्मान् (वक्षत्) वहत् प्रापयेत् (अनिमानः) अपरिमाणः (सुवह्मा) सुष्ठु वोढा (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (विश्वानि) सर्वाणि (अति) (दुर्गहाणि) यानि दुर्गाणि दुःखेन गन्तुं योग्यानि घ्नन्ति तानि धर्म्याणि कर्माणि ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यः परमात्मा सर्वेषामस्माकं सर्वाणि दुःखानि प्रज्ञादानेन निवार्याऽधर्माचरणात् सङ्कोचयति तं परमात्मानमात्मना सततं ध्यायत ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो आमचे संपूर्ण दुःख बुद्धीद्वारे दूर करतो व अधर्माचरण नष्ट करतो, त्या परमात्म्याचे आत्म्याद्वारे निरंतर ध्यान करा. ॥ ७ ॥