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स नो॑ बोधि पुरए॒ता सु॒गेषू॒त दु॒र्गेषु॑ पथि॒कृद्विदा॑नः। ये अश्र॑मास उ॒रवो॒ वहि॑ष्ठा॒स्तेभि॑र्न इन्द्रा॒भि व॑क्षि॒ वाज॑म् ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa no bodhi puraetā sugeṣūta durgeṣu pathikṛd vidānaḥ | ye aśramāsa uravo vahiṣṭhās tebhir na indrābhi vakṣi vājam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। बो॒धि॒। पु॒रः॒ऽए॒ता। सु॒ऽगेषु॑। उ॒त। दुः॒ऽगेषु॑। प॒थि॒ऽकृत्। विदा॑नः। ये। अश्र॑मासः। उ॒रवः॑। वहि॑ष्ठाः। तेभिः॑। नः॒। इ॒न्द्र॑। अ॒भि। व॒क्षि॒। वाज॑म् ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:21» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सुख और ऐश्वर्य के प्राप्त करानेवाले (सः) वह आप (पुरएता) अग्रगामी (सुगेषु) सुगम व्यवहारों में (उन) और (दुर्गेषु) दुःख से प्राप्त होने योग्यों में (पथिकृत्) मार्ग के करनेवाले (विदानः) जानते हुए (नः) हम लोगों को (बोधि) जानें और (ये) जो (अश्रमासः) थकावट से रहित (उरवः) बहुत (वहिष्ठाः) अतिशय पहुँचानेवाले हैं (तेभिः) उनके साथ (नः) हम लोगों के वा हम लोगों के लिये (वाजम्) विज्ञान को (अभि, वक्षि) प्राप्त कराइये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - वही विद्वान् है जो सबका मङ्गलकारी, स्वयं धर्ममार्ग को प्राप्त होकर औरों को धर्ममार्ग में चलनेवाले करे, जो सदा सत्संग करता है, वही सब से उत्तम होकर विज्ञान देने को योग्य होता है ॥१२॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, ईश्वर और राजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! स त्वं पुरएता सुगेषूत दुर्गेषु पथिकृद्विदानो नोऽस्मान् बोधि। य अश्रमास उरवो वहिष्ठाः सन्ति तेभिस्सह नो वाजमभि वक्षि ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (नः) अस्मानस्माकं वा (बोधि) (पुरएता) यः पुर एति गच्छति सः (सुगेषु) सुगमेषु व्यवहारेषु (उत) अपि (दुर्गेषु) दुःखेन गन्तुं योग्येषु (पथिकृत्) यः पन्थानं करोति (विदानः) विजानन् (ये) (अश्रमासः) श्रमरहिताः (उरवः) बहवः (वहिष्ठाः) अतिशयेन वोढारः (तेभिः) तैः (नः) अस्मान् (इन्द्र) सुखैश्वर्यप्रापक (अभि) (वक्षि) प्रापय (वाजम्) विज्ञानम् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - स एवास्ति विद्वान्त्सर्वेषां मङ्गलकारी यः स्वयं धर्ममार्गं गत्वाऽन्यान् धर्ममार्गगन्तॄन् कुर्यात् यः सदा सत्सङ्गं करोति स एव सर्वेभ्य उत्तमो भूत्वा विज्ञानं दातुमर्हतीति ॥१२॥ अत्रेन्द्रविद्वदीश्वरराजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकविंशतितमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो सर्वांचे मंगल करणारा, स्वतः धर्मात चालणारा व इतरांनाही चालविणारा, असतो तोच विद्वान असतो. जो सदैव सत्संग करतो तोच सर्वात उत्तम होऊन विज्ञान देण्यायोग्य असतो. ॥ १२ ॥