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इ॒म उ॑ त्वा पुरुशाक प्रयज्यो जरि॒तारो॑ अ॒भ्य॑र्चन्त्य॒र्कैः। श्रु॒धी हव॒मा हु॑व॒तो हु॑वा॒नो न त्वावाँ॑ अ॒न्यो अ॑मृत॒ त्वद॑स्ति ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ima u tvā puruśāka prayajyo jaritāro abhy arcanty arkaiḥ | śrudhī havam ā huvato huvāno na tvāvām̐ anyo amṛta tvad asti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मे। ऊँ॒ इति॑। त्वा॒। पु॒रु॒ऽशा॒क॒। प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ प्रऽयज्यो। ज॒रि॒तारः॑। अ॒भि। अ॒र्च॒न्ति॒। अ॒र्कैः। श्रु॒धि। हव॑म्। आ। हु॒व॒तः। हु॒वा॒नः। न। त्वाऽवा॑न्। अ॒न्यः। अ॒मृ॒त॒। त्वत्। अ॒स्ति॒ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:21» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रयज्यो) यत्न से मेल करने को योग्य (पुरुशाक) बहुत सामर्थ्य से युक्त परमेश्वर ! जो (इमे) ये (जरितारः) विद्या के लाभ की स्तुति करनेवाले जन (अर्कैः) सत्कारों से (त्वा) आपको (अभि, अर्चन्ति) सब ओर से सत्कार करते हैं। हे (अमृत) नाशरहित ! जिन (त्वत्) आप से (त्वावान्) आपके सदृश (अन्यः) अन्य दूसरा (न) नहीं (अस्ति) है वह (हुवानः) प्रशंसा करते हुए आप उन (हुवतः) स्तुति करते हुओं को और (हवम्) उच्चारित शब्द को (आ) सब प्रकार (श्रुधि) सुनिये (उ) और उन को स्वीकार करिये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन परमात्मा की स्तुति और प्रार्थना करके उपासना करते हैं, वैसे आप भी उपासना करो और उसके सदृश वा उससे अधिक कोई भी नहीं है, ऐसा जानो ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥

अन्वय:

हे प्रयज्यो पुरुशाक परमेश्वर ! य इमे जरितारोऽर्कैस्त्वाऽभ्यर्चन्ति, हे अमृत ! यतस्त्वत् त्वावानन्यो नास्ति स त्वं हुवानस्तान् हुवतो हवमाऽश्रुधी उ ताननुगृहाण ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) (उ) (त्वा) त्वाम् (पुरुशाक) बहुशक्ते (प्रयज्यो) यो यत्नेन यष्टुं सङ्गन्तुं योग्यस्तत्सम्बुद्धौ (जरितारः) विद्यालाभस्तोतारः (अभि) (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (अर्कैः) सत्करणैः (श्रुधी) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) उच्चारितशब्दम् (आ) (हुवतः) स्तुवतः (हुवानः) स्तुवन् (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (अन्यः) इतरः (अमृत) नाशरहित (त्वत्) तव सकाशात् (अस्ति) ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः परमात्मानं स्तुत्वा प्रार्थ्योपासते तथा यूयमप्युपाध्वं तत्सदृशस्तदधिको वा कोऽपि नास्तीति विजानीत ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करतात तशी उपासना तुम्हीही करा व त्याच्यापेक्षा मोठा कोणीही नाही, हे जाणा. ॥ १० ॥