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स वे॑त॒सुं दश॑मायं॒ दशो॑णिं॒ तूतु॑जि॒मिन्द्रः॑ स्वभि॒ष्टिसु॑म्नः। आ तुग्रं॒ शश्व॒दिभं॒ द्योत॑नाय मा॒तुर्न सी॒मुप॑ सृजा इ॒यध्यै॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa vetasuṁ daśamāyaṁ daśoṇiṁ tūtujim indraḥ svabhiṣṭisumnaḥ | ā tugraṁ śaśvad ibhaṁ dyotanāya mātur na sīm upa sṛjā iyadhyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। वे॒त॒सुम्। दश॑ऽमायम्। दश॑ऽओणिम्। तूतु॑जिम्। इन्द्रः॑। स्व॒भि॒ष्टिऽसु॑म्नः। आ। तुग्र॑म्। शश्व॑त्। इभ॑म्। द्योत॑नाय। मा॒तुः। न। सी॒म्। उप॑। सृ॒ज॒। इ॒यध्यै॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:20» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो (स्वभिष्टिसुम्नः) उत्तम प्रकार अभीष्ट सुखवाले (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त राजा (सः) वह आप (द्योतनाय) प्रकाश के लिये (वेतसुम्) व्यापनशील (दशमायम्) दश अङ्गुलियों के तुल्य प्रमाण जिसका उस (दशोणिम्) दश प्रकार से परित्याग जिसका और (तूतुजिम्) बल से युक्त (तुग्रम्) ग्रहण करनेवाले (इभम्) हाथी को (इयध्यै) प्राप्त होने के लिये (मातुः) माता से (नः) जैसे वैसे (सीम्) सब ओर से (शश्वत्) निरन्तर (आ, उप, सृजा) समीप प्रकट कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - वही राजा धनवान् होवे कि जो दश इन्द्रियों से उत्तम कर्म और विज्ञान को बढ़ा के अभीष्ट सुख की निरन्तर उन्नति करे और माता के सदृश प्रजाओं का पालन करे ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यः स्वभिष्टुसुम्न इन्द्रस्स त्वं द्योतनाय वेतसुं दशमायं दशोणिं तूतुजिं तुग्रमिभमियध्यै मातुर्न सीं शश्वदोप सृजा ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (वेतसुम्) व्यापनशीलम् (दशमायम्) दशाङ्गुलय इव माया मानं यस्य तम् (दशोणिम्) दशधोणिः परिहाणं यस्य तम् (तूतुजिम्) बलवन्तम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (स्वभिष्टिसुम्नः) सुष्ठु अभिष्टि सुम्नं सुखं यस्य यस्माद्वा (आ) (तुग्रम्) आदातारम् (शश्वत्) निरन्तरम् (इभम्) हस्तिनमिव (द्योतनाय) प्रकाशनाय (मातुः) जनन्याः (न) इव (सीम्) सर्वतः (उप) (सृजा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (इयध्यै) एतुं प्राप्तुम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - स एव राजा श्रीमान् भवेद्यो दशोन्द्रियैरुत्तमं कर्मविज्ञानं वर्धयित्वाऽभीष्टसुखं सततमुन्नयेन् मातृवत्प्रजाः पालयेत् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो दहा इंद्रियांनी उत्तम कर्म व विज्ञान वाढवून अभीष्ट सुख निरंतर वर्धित करतो व मातेप्रमाणे प्रजेचे पालन करतो तोच राजा श्रीमंत होतो. ॥ ८ ॥