वांछित मन्त्र चुनें

द्यौर्न य इ॑न्द्रा॒भि भूमा॒र्यस्त॒स्थौ र॒यिः शव॑सा पृ॒त्सु जना॑न्। तं नः॑ स॒हस्र॑भरमुर्वरा॒सां द॒द्धि सू॑नो सहसो वृत्र॒तुर॑म् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyaur na ya indrābhi bhūmāryas tasthau rayiḥ śavasā pṛtsu janān | taṁ naḥ sahasrabharam urvarāsāṁ daddhi sūno sahaso vṛtraturam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्यौः। न। यः। इ॒न्द्र॒। अ॒भि। भूम॑। अ॒र्यः। त॒स्थौ। र॒यिः। शव॑सा। पृ॒त्ऽसु। जना॑न्। तम्। नः॒। स॒हस्र॑ऽभरम्। उ॒र्व॒रा॒ऽसाम्। द॒द्धि। सू॒नो॒ इति॑। स॒ह॒सः॒। वृ॒त्र॒ऽतुर॑म् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:20» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तेरह ऋचावाले बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) बल से (सूनो) श्रेष्ठ पुत्र (इन्द्र) अत्यन्त श्रेष्ठ धन से युक्त ! (यः) जो (द्यौः) बिजुली वा सूर्य के (न) समान प्रकाशित (रयिः) धन है इस का (अर्यः) स्वामी (शवसा) बल से (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (जनान्) मनुष्यों के प्रति (अभि) सम्मुख (तस्थौ) वर्त्तमान होवे (तम्) उस (सहस्रभरम्) असंख्य को धारण करनेवाले (वृत्रतुरम्) जैसे मेघों को, वैसे शत्रुओं को नाश करता है जिससे उस तथा (उर्वरासाम्) बहुत श्रेष्ठ भूमियों में श्रेष्ठ विजय को (नः) हम लोगों के लिये (दद्धि) दीजिये जिससे हम लोग लक्ष्मीवान् (भूम) होवें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य बिजुली के सदृश पराक्रमी और सूर्य के सदृश प्रतापयुक्त हुए सङ्ग्रामों में साहसिक होवें, वे विजयवान् होवें ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे सहसः सूनो इन्द्र ! यो द्यौर्न रयिरस्त्यस्यार्यः शवसा पृत्सु जनानभि तस्थौ तं सहस्रभरं वृत्रतुरमुवर्रासां मध्ये श्रेष्ठं विजयं नो दद्धि येन वयं श्रीमन्तो भूम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यौः) विद्युत् सूर्यो वा (न) इव (यः) (इन्द्र) परमपूजित धनयुक्त (अभि) आभिमुख्ये (भूम) भवेम (अर्यः) स्वामी (तस्थौ) तिष्ठेत् (रयिः) धनम् (शवसा) बलेन (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (जनान्) (तम्) (नः) अस्मभ्यम् (सहस्रभरम्) यः सहस्रमसङ्ख्यं बिभर्त्ति तम् (उर्वरासाम्) बहुश्रेष्ठानां भूमीनाम् (दद्धि) देहि (सूनो) सत्पुत्र (सहसः) बलात् (वृत्रतुरम्) वृत्रानिव शत्रूंस्तुर्वति हिनस्ति येन तम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः ये मनुष्या विद्युद्वत्पराक्रमिणोऽर्कवद्दीप्तिमन्तः सङ्ग्रामेषु साहसिकाः स्युस्ते विजयवन्तो भवेयुः ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे विद्युतप्रमाणे पराक्रमी व सूर्याप्रमाणे प्रतापयुक्त असून युद्धात साहसी असतील तर ती विजयी होतात. ॥ १ ॥