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अधा॒ हि वि॒क्ष्वीड्योऽसि॑ प्रि॒यो नो॒ अति॑थिः। र॒ण्वः पु॒री॑व॒ जूर्यः॑ सू॒नुर्न त्र॑य॒याय्यः॑ ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā hi vikṣv īḍyo si priyo no atithiḥ | raṇvaḥ purīva jūryaḥ sūnur na trayayāyyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। हि। वि॒क्षु। ईड्यः॑। असि॑। प्रि॒यः। नः॒। अति॑थिः। र॒ण्वः। पु॒रिऽइ॑व। जूर्यः॑। सू॒नुः। न। त्र॒य॒याय्यः॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:2» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (हि) जिस कारण से आप (विक्षु) प्रजाओं में (ईड्यः) स्तुति करने के योग्य और (नः) हम लोगों के (प्रियः) कामना करने योग्य (पुरीव) रमणीयपुरी के समान (रण्वः) रमण करता हुआ (जूर्य्यः) जीर्ण (त्रययाय्यः) रक्षक को प्राप्त होनेवाला (सूनुः) सन्तान (न) जैसे वैसे (अतिथिः) नहीं नियत तिथि जिसकी ऐसे (असि) हो, तिससे (अधा) इसके अनन्तर सत्कार करने योग्य हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे अतिथिजन प्रजाजनों से सत्कार करने योग्य होते और जैसे यहाँ माता और पिता से सन्तान पालन करने योग्य होते हैं, वैसे ही धार्म्मिक विद्वान् जन सत्कार करने योग्य होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! हि त्वं विक्ष्वीड्यो नः प्रियः पुरीव रण्वो जूर्य्यस्त्रययाय्यः सूनुर्नाऽतिथिरसि तस्मादधा सत्कर्त्तव्योऽसि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधा) अथ। अथ निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) यतः (विक्षु) प्रजासु (ईड्यः) स्तोतुमर्हः (असि) (प्रियः) कमनीयः (नः) अस्माकम् (अतिथिः) अनियततिथिः (रण्वः) रममाणः (पुरीव) यथा रमणीया नगरी (जूर्य्यः) जीर्णः (सूनुः) अपत्यम् (न) इव (त्रययाय्यः) यस्त्रयं रक्षकं याति प्राप्नोति सः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथाऽतिथयः प्रजाजनैः सत्कर्त्तव्याः सन्ति यथात्र मातापितृभ्यां सन्तानाः पालनीया भवन्ति तथाहि धार्मिका विद्वांसोऽर्चनीया भवन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपामालंकार आहे. जसे अतिथी प्रजाजनाकडून सत्कार करण्यायोग्य असतात व जसे माता-पिता संतानाचे पालन करतात तसेच धार्मिक विद्वान लोक सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥