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स॒जोष॑स्त्वा दि॒वो नरो॑ य॒ज्ञस्य॑ के॒तुमि॑न्धते। यद्ध॒ स्य मानु॑षो॒ जनः॑ सुम्ना॒युर्जु॒ह्वे अ॑ध्व॒रे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sajoṣas tvā divo naro yajñasya ketum indhate | yad dha sya mānuṣo janaḥ sumnāyur juhve adhvare ||

पद पाठ

स॒ऽजोषः॑। त्वा॒। दि॒वः। नरः॑। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुम्। इ॒न्ध॒ते॒। यत्। ह॒। स्य। मानु॑षः। जनः॑। सु॒म्न॒ऽयुः। जु॒ह्वे। अ॒ध्व॒रे ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:2» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (सजोषः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले (दिवः) सत्य की कामना करते हुए (नरः) नायक जन (यज्ञस्य) न्यायव्यवहार की (केतुम्) बुद्धि को और (त्वा) आपको (इन्धते) प्रकाशित करते हैं और (यत्) जिससे (ह) निश्चय करके (स्यः) वह (मानुषः) विचारशील और (सुम्नायुः) सुख की कामना करनेवाले (जनः) प्रसिद्ध मनुष्य आप (अध्वरे) अहिंसारूप में वर्त्तमान होते हो, उसकी मैं (जुह्वे) स्पर्द्धा करता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - उसी का सङ्ग मनुष्यों को करना चाहिये, जिसकी धार्मिक विद्वान् जन प्रशंसा करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! सजोषो दिवो नरो यज्ञस्य केतुं त्वा त्वामिन्धते यद्ध स्यो मानुषः सुम्नायुर्जनस्त्वमध्वरे वर्त्तसे तमहं जुह्वे ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सजोषः) समानप्रीतिसेविनः (त्वा) त्वाम् (दिवः) सत्यं कामयमानाः (नरः) नेतारः (यज्ञस्य) न्यायव्यवहारस्य (केतुम्) प्रज्ञाम् (इन्धते) प्रकाशन्ते (यत्) यतः (ह) खलु (स्यः) सः (मानुषः) मननशीलः (जनः) प्रसिद्धः (सुम्नायुः) सुखं कामुकः (जुह्वे) स्पर्द्धे (अध्वरे) अहिंसामये ॥३॥
भावार्थभाषाः - तस्यैव सङ्गो मनुष्यैः कर्त्तव्यो यं धार्म्मिका विद्वांसः प्रशंसेयुः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - धार्मिक विद्वान लोक ज्याची प्रशंसा करतात त्याच माणसाची सर्वांनी संगती धरावी. ॥ ३ ॥