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अ॒ग्निर्न शुष्कं॒ वन॑मिन्द्र हे॒ती रक्षो॒ नि ध॑क्ष्य॒शनि॒र्न भी॒मा। ग॒म्भी॒रय॑ ऋ॒ष्वया॒ यो रु॒रोजाध्वा॑नयद्दुरि॒ता द॒म्भय॑च्च ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir na śuṣkaṁ vanam indra hetī rakṣo ni dhakṣy aśanir na bhīmā | gambhīraya ṛṣvayā yo rurojādhvānayad duritā dambhayac ca ||

पद पाठ

अ॒ग्निः। न। शुष्क॑म्। वन॑म्। इ॒न्द्र॒। हे॒ती। रक्षः॑। नि। ध॒क्षि॒। अ॒शनिः॑। न। भी॒मा। ग॒म्भी॒रया॑। ऋ॒ष्वया॑। यः। रु॒रोज॑। अध्व॑नयत्। दुः॒ऽइ॒ता। द॒म्भय॑त्। च॒ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:18» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुष्टता के नाशक राजन् ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि जैसे (शुष्कम्) सूखे (वनम्) वन को (न) वैसे (रक्षः) दुष्ट जन को (धक्षि) जलाते हो और जिन आपका (हेतिः) वज्र (अशनिः) बिजुली (न) जैसे वैसे (भीमा) जिनसे जन भय करते वह सेना है उस (ऋष्वया) बड़ी (गम्भीरया) अथाह बलयुक्त सेना से आप शत्रुओं को (रुरोज) रोगयुक्त करते हो उसको (अध्वानयत्) कंपाते हो और (दुरिता) दुष्ट आचरणों को (च) भी (दम्भयत्) नष्ट करते हो उससे जिस कारण दुष्टजन को (नि) अत्यन्त जलाते हो, इससे अपराजित हो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजा आदि जनो ! जैसे अग्नि ज्वाला से सूखे और गीले भी वन को जलाता है, वैसे उत्तम प्रकार शिक्षित तथा बड़ी सेना से शत्रुओं को भय करिये और शत्रुओं को जलाइये ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र राजन् ! योऽग्निर्यथा शुष्कं वनं न रक्षो धक्षि यस्य ते हेतिरशनिर्न भीमा सेनास्ति तया भवान् ऋष्वया गम्भीरया शत्रून् रुरोज तमध्वानयद्दुरिता च दम्भयत् तेन यतो रक्षो नि धक्षि तस्मादपराजितोऽसि ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) पावकः (न) इव (शुष्कम्) (वनम्) जङ्गलम् (इन्द्र) दुष्टताविदारक (हेतिः) वज्रः (रक्षः) दुष्टं जनम् (नि) नितराम् (धक्षि) दहसि (अशनिः) स्तनयित्नुः (न) इव (भीमा) बिभेति यस्याः सा (गम्भीरया) अगाधबलया (ऋष्वया) महत्या (यः) (रुरोज) शत्रून् रुजति (अध्वानयत्) धुनयति (दुरिता) दुष्टाचरणानि (दम्भयत्) दम्भयति हिंसयति (च) ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे राजादयो जना ! यथाग्निर्ज्वालया शुष्कमार्द्रमपि वनं दहति तथा सुशिक्षितया महत्या सेनया शत्रूणां भयं कुर्य्यात् दुष्टाञ्छत्रून् दहत ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा इत्यादींनो ! जसा अग्नी शुष्क व आर्द्र वनालाही जाळतो तसे प्रशिक्षित विशाल सेनेने शत्रूंना भयभीत करा आणि त्यांचे दहन करा. ॥ १० ॥