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स नो॒ वाजा॑य॒ श्रव॑स इ॒षे च॑ रा॒ये धे॑हि द्यु॒मत॑ इन्द्र॒ विप्रा॑न्। भ॒रद्वा॑जे नृ॒वत॑ इन्द्र सू॒रीन्दि॒वि च॑ स्मैधि॒ पार्ये॑ न इन्द्र ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa no vājāya śravasa iṣe ca rāye dhehi dyumata indra viprān | bharadvāje nṛvata indra sūrīn divi ca smaidhi pārye na indra ||

पद पाठ

सः। नः॒। वाजा॑य। श्रव॑से। इ॒षे। च॒। रा॒ये। धे॒हि॒। द्यु॒ऽमतः॑। इ॒न्द्र॒। विप्रा॑न्। भ॒रत्ऽवा॑जे। नृ॒ऽवतः॑। इ॒न्द्र॒। सू॒रीन्। दि॒वि। च॒। स्म॒। ए॒धि॒। पार्ये॑। नः॒। इ॒न्द्र॒ ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:17» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के प्राप्त करानेवाले ! (सः) वह राजा आप (द्युमतः) विज्ञान के प्रकाश से युक्त (नः) हम लोगों (विप्रान्) बुद्धिमान् विद्वानों को (वाजाय) वेग वा विज्ञान के लिये (श्रवसे) श्रवण के लिये (इषे) अन्न के लिये और (राये) धन के लिये (च) भी (धेहि) धारण करिये और हे (इन्द्र) दुःख और दारिद्र्य के विनाशक ! आप (नृवतः) अच्छे मनुष्यों से युक्त हम (सूरीन्) विद्वानों को (भरद्वाजे) राज्य के पुष्ट करने वा पालन करनेवाले व्यवहार में और (दिवि) सुन्दर न्याय के प्रकाश में (च) भी धारण करिये और हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के बढ़ानेवाले ! आप (पार्य्ये) पार करने योग्य में भी (नः) हम लोगों के बढ़ानेवाले (स्म) ही (एधि) होओ ॥१४॥
भावार्थभाषाः - राजाओं को योग्य है कि सम्पूर्ण अधिकारों में सम्पूर्ण विद्याओं में चतुर, धार्म्मिक, कुलीन और राजभक्तों को संस्थापित करके सब प्रकार से राज्य की उन्नति करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्नृपेण किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! स त्वं द्युमतो नो विप्रान् वाजाय श्रवस इषे राये च धेहि, हे इन्द्र ! त्वं नृवतोऽस्मान्त्सूरीन् भरद्वाजे दिवि च धेहि। हे इन्द्र ! त्वं पार्य्ये च नोऽस्माकं वर्धकः स्मैधि ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) राजा (नः) अस्मान् (वाजाय) वेगाय विज्ञानाय वा (श्रवसे) श्रवणाय (इषे) अन्नाय (च) (राये) धनाय (धेहि) (द्युमतः) विज्ञानप्रकाशयुक्तान् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (विप्रान्) मेधाविनो विपश्चितः (भरद्वाजे) राज्यस्य पोषके पालके वा व्यवहारे (नृवतः) प्रशस्तजनयुक्तान् (इन्द्र) दुःखदारिद्र्यविनाशक (सूरीन्) विदुषः (दिवि) कमनीये न्यायप्रकाशे (च) (स्म) एव (एधि) भव (पार्य्ये) पारयितव्ये (नः) अस्माकम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्यवर्धक ॥१४॥
भावार्थभाषाः - राज्ञां योग्यमस्ति सर्वेष्वधिकारेषु सर्वविद्याकुशलान् धार्मिकान् कुलीनान् राजभक्तान् संस्थाप्य सर्वतो राज्योन्नतिं विदध्युः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने संपूर्ण अधिकारात सर्व विद्येत चतुर, धार्मिक, कुलीन राजभक्तांना संस्थापित करून सर्व प्रकारे राज्याची उन्नती करावी. ॥ १४ ॥