वांछित मन्त्र चुनें

आ क्षोदो॒ महि॑ वृ॒तं न॒दीनां॒ परि॑ष्ठितमसृज ऊ॒र्मिम॒पाम्। तासा॒मनु॑ प्र॒वत॑ इन्द्र॒ पन्थां॒ प्रार्द॑यो॒ नीची॑र॒पसः॑ समु॒द्रम् ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā kṣodo mahi vṛtaṁ nadīnām pariṣṭhitam asṛja ūrmim apām | tāsām anu pravata indra panthām prārdayo nīcīr apasaḥ samudram ||

पद पाठ

आ। क्षोदः॑। महि॑। वृ॒तम्। न॒दीना॑म्। परि॑ऽस्थितम्। अ॒सृ॒जः॒। ऊ॒र्मिम्। अ॒पाम्। तासा॑म्। अनु॑। प्र॒ऽवतः॑। इ॒न्द्र॒। पन्था॑म्। प्र। आ॒र्द॒यः॒। नीचीः॑। अ॒पसः॑। स॒मु॒द्रम् ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:17» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:12


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा आदि क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य्य के समान वर्त्तमान राजन् ! जैसे सूर्य्य (नदीनाम्) नदियों के (महि) बड़े (वृतम्) स्वीकार किये गये (परिष्ठितम्) सब ओर से वर्त्तमान (क्षोदः) जल की और (अपाम्) जलों की (ऊर्मिम्) तरंग को (असृजः) उत्पन्न करता (तासाम्) उनके (प्रवतः) नीचे स्थान से (अनु) पश्चात् (पन्थाम्) मार्ग को (अपसः) कर्म्म की (नीचीः) निचली भूमियों को और (समुद्रम्) अन्तरिक्ष वा बड़े समुद्र को (प्र, आ, आर्दयः) प्राप्त कराता है, वैसे आप सेना और प्रजा को सुख प्राप्त करा के शत्रुओं को नीची दशा को प्राप्त कराइये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि जन सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान हैं, वे प्रजापालन और शत्रु के निवारण करने को समर्थ होते हैं ॥१२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजादयः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यथा सूर्य्यो नदीनां महि वृतं परिष्ठितं क्षोदोऽपामूर्मिं चाऽसृजस्तासां प्रवतोऽनु पन्थामपसो नीचीः समुद्रं प्राऽऽर्दयस्तथा त्वं सेनां प्रजां च सुखं नीत्वा शत्रूनधोगतिं नय ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (क्षोदः) उदकम्। क्षोद इत्युदकनाम। (निघं०१.१२) (महि) महत् (वृतम्) स्वीकृतम् (नदीनाम्) (परिष्ठितम्) परितः सर्वतः स्थितम् (असृजः) सृजति (ऊर्मिम्) तरङ्गम् (अपाम्) जलानाम् (तासाम्) (अनु) (प्रवतः) निम्नोद्देशात् (इन्द्र) सूर्य्य इव राजन् (पन्थाम्) (प्र) (आर्दय) आर्दयति नयति (नीचीः) निम्ने देशे वर्त्तमानाः भूमीः (अपसः) कर्म्मणः (समुद्रम्) अन्तरिक्षं महोदधिं वा ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजादयो जनाः सूर्यवद्वर्त्तन्ते ते प्रजापालनं शत्रुनिवारणं च कर्तुं शक्नुवन्ति ॥१२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी लोक सूर्याप्रमाणे असतात ते प्रजापालन व शत्रू निवारण करण्यास समर्थ असतात. ॥ १२ ॥