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त्वामी॑ळे॒ अध॑ द्वि॒ता भ॑र॒तो वा॒जिभिः॑ शु॒नम्। ई॒जे य॒ज्ञेषु॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām īḻe adha dvitā bharato vājibhiḥ śunam | īje yajñeṣu yajñiyam ||

पद पाठ

त्वाम्। ई॒ळे॒। अध॑। द्वि॒ता। भ॒र॒तः। वा॒जिऽभिः॑। शु॒नम्। ई॒जे। य॒ज्ञेषु॑। य॒ज्ञिय॑म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे मैं (यज्ञेषु) समागमरूप यज्ञों में (यज्ञियम्) यज्ञ करने योग्य (त्वाम्) आप विद्वान् की (ईळे) प्रशंसा करता हूँ (अध) इसके अनन्तर (द्विता) दो पढ़ाने और पढ़नेवाले वा उपदेश करने वा उपदेश पाने योग्यों का (भरतः) धारण और पोषण करनेवाला मैं (वाजिभिः) विज्ञानादिकों से (शुनम्) सुख की (ईजे) सङ्गति करता हूँ, वैसे आप सङ्गति कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि परस्पर विद्या की उन्नति करके अन्यों को ग्रहण करावें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथाऽहं यज्ञेषु यज्ञियं त्वामीळेऽध द्विता भरतोऽहं वाजिभिः शुनमीजे तथा त्वं यज ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) विद्वांसम् (ईळे) प्रशंसामि (अध) आनन्तर्य्ये (द्विता) द्वयोरध्यापकाध्येत्रोरुपदेष्ट्रुपदेश्ययोर्भावः (भरतः) धर्ता पोषकः (वाजिभिः) विज्ञानादिभिः (शुनम्) सुखम् (ईजे) यजामि (यज्ञेषु) सङ्गतिमयेषु (यज्ञियम्) यज्ञं कर्त्तुमर्हम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिः परस्परैर्विद्योन्नतिं विधायाऽन्येभ्यो ग्राहयितव्या ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी परस्पर विद्येची उन्नती करून इतरांना ग्रहण करवावी. ॥ ४ ॥