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उप॑ त्वा र॒ण्वसं॑दृशं॒ प्रय॑स्वन्तः सहस्कृत। अग्ने॑ ससृ॒ज्महे॒ गिरः॑ ॥३७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa tvā raṇvasaṁdṛśam prayasvantaḥ sahaskṛta | agne sasṛjmahe giraḥ ||

पद पाठ

उप॑। त्वा॒। र॒ण्वऽस॑न्दृशम्। प्रय॑स्वन्तः। स॒हः॒ऽकृ॒त॒। अग्ने॑। स॒सृ॒ज्महे॑। गिरः॑ ॥३७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:37 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:28» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:37


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य कैसे वाणी को प्रयुक्त करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहस्कृत) सहसा कार्य्यकर्ता (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वन् ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्न करते हुए हम लोग जिन (गिरः) वाणियों को (ससृज्महे) अत्यन्त प्रकट करें उनसे (रण्वसन्दृशम्) रमणीय के तुल्य (त्वा) आपको (उप) समीप में अत्यन्त प्रकट करें ॥३७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अपने प्रयोजन की प्रिय वाणी हृदय को प्रिय होती है, वैसे अन्य जनों के प्रयोजन को भी समझें ॥३७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कीदृशी वाक् प्रयोक्तव्येत्याह ॥

अन्वय:

हे सहस्कृताग्ने ! प्रयस्वन्तो वयं या गिरः ससृज्महे ताभी रण्वसन्दृशं त्वोप ससृज्महे ॥३७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (त्वा) त्वाम् (रण्वसन्दृशम्) रमणीयसदृशम् (प्रयस्वन्तः) प्रयतमानाः (सहस्कृत) यः सहसा करोति तत्सम्बुद्धौ (अग्ने) पावक इव विद्वान् (ससृज्महे) भृशं सृजेम (गिरः) वाचः ॥३७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथा स्वार्थप्रिया वाग्घृद्या भवति तथैवान्यार्थापि वेद्या ॥३७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी आपल्या प्रयोजनासाठी प्रियवाणी हृदयाला चांगली वाटते तसे इतरांच्या प्रयोजनालाही जाणावे. ॥ ३७ ॥