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वि॒भूष॑न्नग्न उ॒भयाँ॒ अनु॑ व्र॒ता दू॒तो दे॒वानां॒ रज॑सी॒ समी॑यसे। यत्ते॑ धी॒तिं सु॑म॒तिमा॑वृणी॒महेऽध॑ स्मा नस्त्रि॒वरू॑थः शि॒वो भ॑व ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vibhūṣann agna ubhayām̐ anu vratā dūto devānāṁ rajasī sam īyase | yat te dhītiṁ sumatim āvṛṇīmahe dha smā nas trivarūthaḥ śivo bhava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒ऽभूष॑न्। अ॒ग्ने॒। उ॒भया॒न्। अनु॑। व्र॒ता। दू॒तः। दे॒वाना॑म्। रज॑सी॒ इति॑। सम्। ई॒य॒से॒। यत्। ते॒। धी॒तिम्। सु॒ऽम॒तिम्। आ॒ऽवृ॒णी॒महे॑। अध॑। स्म॒। नः॒। त्रि॒ऽवरू॑थः। शि॒वः। भ॒व॒ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:9 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह उपासित ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सम्पूर्ण दुःखों को जलाने अर्थात् दूर करनेवाले परमेश्वर ! जो आप (रजसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (देवानाम्) विद्वानों के (दूतः) दोषों को दूर करने अथवा धर्म्म, अर्थ और मोक्ष को प्राप्त करानेवाले होते हुए (व्रता) कर्मों को (विभूषन्) शोभित करते और (उभयान्) विद्वान् और अविद्वान् मनुष्यों को (अनु) पीछे शोभित करते हुए अन्तरिक्ष और पृथिवी को (सम्, ईयसे) व्याप्त होते हैं और (यत्) जिस (ते) आपकी (धीतिम्) धारणा वा बुद्धि को (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धि को हम लोग (आवृणीमहे) स्वीकार करें वह (अध) इसके अनन्तर (त्रिवरूथः) तीन उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गृहों के सदृश निवासस्थानवाले आप (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) कल्याणकारी (स्मा) ही (भव) हूजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य जगत् के रचनेवाले ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करते हैं तथा उसके गुण, कर्म्म और स्वभावों के सदृश अपने गुण, कर्म्म और स्वभावों को करते हैं, उनको वह जैसे दूत, वैसे सब विद्या के समाचार को जनाता हुआ सहज से मुक्ति के पदको प्राप्त कराता है, इससे सब काल में ही इसकी उपासना करनी चाहिये ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स ईश्वर उपासितः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यस्त्वं रजसी देवानां दूतः सन् व्रता विभूषन्नुभयान् मनुष्याननु विभूषन् रजसी समीयसे यत्ते धीतिं सुमतिं वयमावृणीमहे सोऽध त्रिवरूथस्त्वं नः शिवः स्मा भव ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विभूषन्) अलं कुर्वन् (अग्ने) सर्वदुःखदाहक परमेश्वर (उभयान्) विद्वदविद्वन्मनुष्यान् (अनु) (व्रता) कर्म्माणि (दूतः) यो दोषान् दुनोति दूरीकरोति धर्म्मार्थमोक्षान् प्रापयति वा (देवानाम्) विदुषाम् (रजसी) द्यावापृथिव्यौ (सम्) (ईयसे) व्याप्नोषि (यत्) यस्य (ते) तव (धीतिम्) धारणां धियं वा (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम्। (आवृणीमहे) स्वीकुर्महे (अध) अथ (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (त्रिवरूथः) त्रीण्युत्तममध्यमनिकृष्टानि वरूथा गृहाणीव निवासस्थानानि यस्य सः। (शिवः) मङ्गलकारी (भव) ॥९॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या जगत्स्रष्टुरीश्वरस्याज्ञामनुवर्त्तन्ते तस्य गुणकर्म्मस्वभावैः सदृशान्त्स्वगुणकर्म्मस्वभावान् कुर्वन्ति तान् स दूत इव सर्वविद्यासमाचारं बोधयन् सहजतया मुक्तिपदं नयति तस्मात् सर्वदैवाऽयमुपासनीयोऽस्ति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे जगाची निर्मिती करणाऱ्या ईश्वराच्या आज्ञेनुसार वागतात व त्याच्या गुण-कर्मस्वभावानुसार आपले गुण-कर्म स्वभाव बनवितात, तेव्हा दूत जसा विद्येचा समाचार देतो तसा (ईश्वर) सहजतेने त्यांना मुक्तिपद प्राप्त करवून देतो. त्यासाठी सर्वकाळ त्याचीच उपासना केली पाहिजे. ॥ ९ ॥