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द्यु॒ता॒नं वो॒ अति॑थिं॒ स्व॑र्णरम॒ग्निं होता॑रं॒ मनु॑षः स्वध्व॒रम्। विप्रं॒ न द्यु॒क्षव॑चसं सुवृ॒क्तिभि॑र्हव्य॒वाह॑मर॒तिं दे॒वमृ॑ञ्जसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyutānaṁ vo atithiṁ svarṇaram agniṁ hotāram manuṣaḥ svadhvaram | vipraṁ na dyukṣavacasaṁ suvṛktibhir havyavāham aratiṁ devam ṛñjase ||

पद पाठ

द्यु॒ता॒नम्। वः॒। अति॑थिम्। स्वः॑ऽनरम्। अ॒ग्निम्। होता॑रम्। मनु॑षः। सु॒ऽअ॒ध्व॒रम्। विप्र॑म्। न। द्यु॒क्षऽव॑चसम्। सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑। ह॒व्य॒ऽवाह॑म्। अ॒र॒तिम्। दे॒वम्। ऋ॒ञ्ज॒से॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो आप (वः) आप लोगों के (अतिथिम्) अतिथि के समान (द्युतानम्) सत्यार्थ के प्रकाशक (स्वर्णरम्) सुख को प्राप्त कराने और (मनुषः) मनुष्य के (होतारम्) ग्रहण करनेवाले (स्वध्वरम्) उत्तम प्रकार यज्ञ जिससे उस (अग्निम्) अग्नि को (सुवृक्तिभिः) अच्छे प्रकार चलते हैं जिन क्रियाओं से उनके सहित जैसे वैसे (द्युक्षवचसम्) द्योतकवचन के प्रकाशक (हव्यवाहम्) धारण करने योग्य को वहन करने और (अरतिम्) प्राप्ति करानेवाले (देवम्) प्रकाशमान (विप्रम्) बुद्धिमान् को (न) जैसे वैसे (ऋञ्जसे) सिद्ध करते हो उसका हम लोग सत्कार करें ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बुद्धिमान् जन यथायोग्य कर्म्मों को करने को समर्थ होता है, वैसे ही युक्ति से अच्छे प्रकार प्रयोग किया अग्नि सम्पूर्ण व्यापार सिद्ध करने को समर्थ होता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं ज्ञातव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यस्त्वं वो युष्माकमतिथिमिव द्युतानं स्वर्णरं मनुषो होतारं स्वध्वरमग्निं सुवृक्तिभिर्न द्युक्षवचसं हव्यवाहमरतिं देवं विप्रं न ऋञ्जसे तं वयं सत्कुर्य्याम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्युतानम्) सत्यार्थद्योतकम् (वः) युष्माकम् (अतिथिम्) अतिथिमिव (स्वर्णरम्) यः स्वः सुखं नयति तम् (अग्निम्) पावकम् (होतारम्) आदातारम् (मनुषः) मनुष्यस्य (स्वध्वरम्) सुष्ठ्वध्वरा यस्मात्तम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (द्युक्षवचसम्) द्योतकवचनस्य प्रकाशकम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति याभिः क्रियाभिस्ताभिस्सहितम् (हव्यवाहम्) धर्त्तव्यवाहकम् (अरतिम्) प्रापकम् (देवम्) द्योतमानम् (ऋञ्जसे) प्रसाध्नोषि ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चिद्यथायोग्यानि कार्य्याणि कर्तुं शक्नोति तथैव युक्त्या सम्प्रयुक्तोऽग्निः सर्वं व्यापारं साद्धुं शक्नोति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा बुद्धिमान माणूस यथायोग्य कर्म करण्यास समर्थ असतो तसे चांगल्याप्रकारे प्रयुक्त केलेला अग्नी संपूर्ण व्यवहार पूर्ण करण्यास समर्थ असतो. ॥ ४ ॥