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मि॒त्रं न यं सुधि॑तं॒ भृग॑वो द॒धुर्वन॒स्पता॒वीड्य॑मू॒र्ध्वशो॑चिषम्। स त्वं सुप्री॑तो वी॒तह॑व्ये अद्भुत॒ प्रश॑स्तिभिर्महयसे दि॒वेदि॑वे ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitraṁ na yaṁ sudhitam bhṛgavo dadhur vanaspatāv īḍyam ūrdhvaśociṣam | sa tvaṁ suprīto vītahavye adbhuta praśastibhir mahayase dive-dive ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्रम्। न। यम्। सु॒ऽधि॑तम्। भृग॑वः। द॒धुः। वन॒स्पतौ॑। ईड्य॑म्। ऊ॒र्ध्वऽशो॑चिषम्। सः। त्वम्। सुऽप्री॑तः। वी॒तऽह॑व्ये। अ॒द्भु॒त॒। प्रश॑स्तिऽभिः। म॒ह॒य॒से॒। दि॒वेऽदि॑वे ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अद्भुत) महाशय ! (यम्) जिस (मित्रम्) मित्र को (न) जैसे वैसे (सुधितम्) उत्तम प्रकार स्थित को (वनस्पतौ) किरणों के पालक सूर्य्य में (ईड्यम्) उत्तम गुणों से प्रशंसा करने योग्य (ऊर्ध्वशोचिषम्) ऊपर को ज्वाला जिसकी उसको (भृगवः) विद्वान् मनुष्य (दधुः) धारण करते हैं (सः) वह (त्वम्) आप (प्रशस्तिभिः) प्रशंसा करने योग्य धर्म्मयुक्त क्रियाओं से (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सुप्रीतः) उत्तम प्रकार प्रसन्न हुए (वीतहव्ये) व्याप्त हुआ ग्रहण करने योग्य वस्तु जिससे उसमें (महयसे) सत्कार किये जाते हो, इससे सेवन करने योग्य हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे मित्र कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे ही अग्नि उत्तम प्रकार प्रयोग किया कार्य्यों को सिद्ध करता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अद्भुत ! यं मित्रं न सुधितं वनस्पतावीड्यमूर्ध्वशोचिषं भृगवो दधुः स त्वं प्रशस्तिभिर्दिवेदिवे सुप्रीतः सन् वीतहव्ये महयसे तस्मात्सेवनीयोऽसि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रम्) सखायम् (न) इव (यम्) (सुधितम्) सुष्ठु स्थितम् (भृगवः) विद्वांसो मनुष्याः (दधुः) दधति (वनस्पतौ) वनानां किरणानां पालके सूर्य्ये (ईड्यम्) उत्तमैर्गुणैः प्रशंसनीयम् (ऊर्ध्वशोचिषम्) ऊर्ध्वज्वालम् (सः) (त्वम्) (सुप्रीतः) सुष्ठु प्रसन्नः (वीतहव्ये) वीतं व्याप्तं ग्रहीतव्यं वस्तु येन तस्मिन् (अद्भुत) महाशय। अद्भुतमिति महन्नाम। (निघं०३.३) (प्रशस्तिभिः) प्रशंसनीयाभिर्धर्म्याभिः क्रियाभिः (महयसे) सत्क्रियसे (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सखा कार्य्याणि साध्नोति तथैवाग्निः सुसम्प्रयुक्तः कार्य्याणि साध्नोति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा मित्र कार्य सिद्ध करतो तसे अग्नी चांगल्याप्रकारे प्रयुक्त केल्यास कार्य सिद्ध करतो. ॥ २ ॥