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त्वम॑ग्ने वनुष्य॒तो नि पा॑हि॒ त्वमु॑ नः सहसावन्नव॒द्यात्। सं त्वा॑ ध्वस्म॒न्वद॒भ्ये॑तु॒ पाथः॒ सं र॒यिः स्पृ॑ह॒याय्यः॑ सह॒स्री ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne vanuṣyato ni pāhi tvam u naḥ sahasāvann avadyāt | saṁ tvā dhvasmanvad abhy etu pāthaḥ saṁ rayiḥ spṛhayāyyaḥ sahasrī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। व॒नु॒ष्य॒तः। नि। पा॒हि॒। त्वम्। ऊँ॒ इति॑। नः॒। स॒ह॒सा॒ऽव॒न्। अ॒व॒द्यात्। सम्। त्वा॒। ध्व॒स्म॒न्ऽवत्। अ॒भि। ए॒तु॒। पाथः॑। सम्। र॒यिः। स्पृ॒ह॒याय्यः॑। स॒ह॒स्री ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर किस निमित्त उपासना करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसावन्) अत्यन्त बलयुक्त (अग्ने) श्रेष्ठ गुणों के देनेवाले (त्वम्) आप (वनुष्यतः) याचना करते हुए (नः) हम लोगों की (अवद्यात्) निन्द्य आचरण से (त्वम्) आप (नि, पाहि) नित्य रक्षा करिये और जो (स्पृहयाय्यः) स्पृहा कराने योग्य (सहस्री) सम्पूर्ण सुख जिसमें वह (रयिः) धन और जो (ध्वस्मन्वत्) नाशवाला (पाथः) अन्न आदि हम लोगों को (सम्, अभि, एतु) उत्तम प्रकार प्राप्त हो, उससे युक्त हम लोग (उ) भी (त्वा) आपको (सम्) अच्छे प्रकार उपासना करें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो धर्म्म से याचना किया गया जगदीश्वर अधर्म के आचरण से अलग करके धर्म्म को प्राप्त कराता है और जो अनित्य सुखको भी देता है, उसी को रक्षक, सब ऐश्वर्य्य देनेवाला तथा इष्ट देव जानो ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरः किमर्थमुपासनीय इत्याह ॥

अन्वय:

हे सहसावन्नग्ने ! त्वं वनुष्यतो नोऽस्मानवद्यात्त्वं नि पाहि यः स्पृहयाय्यः सहस्री रयिर्यद्ध्वस्मन्वत् पाथश्चाऽस्मान्त्समभ्येतु तद्वन्तो वयमु त्वा त्वां समुपास्महि ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) शुभगुणप्रदातः (वनुष्यतः) याचमानान् (नि) (पाहि) नित्यं रक्ष (त्वम्) (उ) (नः) अस्मान् (सहसावन्) अमितबलयुक्त (अवद्यात्) निन्द्याचरणात् (सम्) (त्वा) त्वाम् (ध्वस्मन्वत्) ध्वंसवन् (अभि) (एतु) प्राप्नोतु (पाथः) अन्नादिकम् (सम्) (रयिः) श्रीः (स्पृहयाय्यः) (सहस्री) सहस्रं सर्वं सुखमस्मिन्निति सः ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो धर्मेण याचितो जगदीश्वरोऽधर्म्माचरणात् पृथक्कृत्य धर्मं प्रापयति यो ह्यनित्यमपि सुखं प्रयच्छति तमेव रक्षकं सर्वैश्वर्य्यप्रदमिष्टदेवं विजानीत ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्याची धर्मपूर्वक याचना केली जाते असा परमेश्वर अधर्माचरणापासून पृथक करून धर्म प्राप्त करवितो व जो अनित्य सुखही देतो त्यालाच रक्षक व ऐश्वर्यदाता इष्ट देव जाणा. ॥ १२ ॥