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इ॒ममू॒ षु वो॒ अति॑थिमुष॒र्बुधं॒ विश्वा॑सां वि॒शां पति॑मृञ्जसे गि॒रा। वेतीद्दि॒वो ज॒नुषा॒ कच्चि॒दा शुचि॒र्ज्योक्चि॑दत्ति॒ गर्भो॒ यदच्यु॑तम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imam ū ṣu vo atithim uṣarbudhaṁ viśvāsāṁ viśām patim ṛñjase girā | vetīd divo januṣā kac cid ā śucir jyok cid atti garbho yad acyutam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। ऊँ॒ इति॑। सु। वः॒। अति॑थिम्। उ॒षः॒ऽबुध॑म्। विश्वा॑साम्। वि॒शाम्। पति॑म्। ऋ॒ञ्ज॒से॒। गि॒रा। वेति॑। इत्। दि॒वः। ज॒नुषा॑। कत्। चि॒त्। आ। शुचिः॑। ज्योक्। चि॒त्। अ॒त्ति॒। गर्भः॑। यत्। अच्यु॑तम् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उन्नीस ऋचावाले सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जिस कारण से आप (इमम्) इस (विश्वासाम्) सम्पूर्ण (विशाम्) मनुष्य आदि प्रजाओं के (पतिम्) पालक (अतिथिम्) अतिथि के समान वर्त्तमान (उषर्बुधम्) प्रातःकाल में जगानेवाले को (ऋञ्जसे) सिद्ध करते हैं (गर्भः) अन्तःस्थ के समान जो (उ) तर्कनासहित (दिवः) पदार्थबोध की (जनुषा) उत्पत्ति से (सु, वेति) अच्छे प्रकार व्याप्त होता (इत्) ही है तथा (कत्) कभी (चित्) भी (यत्) जो (शुचिः) पवित्र (अच्युतम्) नाश से रहित वस्तु को (ज्योक्) निरन्तर (अत्ति) भोगता है और (वः) आप लोगों की (गिरा) वाणी से (चित्) निश्चित (आ) आज्ञा करता है, वह विद्वान् होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे अतिथि सत्कार करने योग्य है, वैसे ही पदार्थविद्या का जाननेवाला सत्कार करने योग्य है, जो सब के अन्तःस्थ नित्य बिजुली की ज्योति को जानते हैं, वे अभीप्सित सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यतस्त्वमिमं विश्वासां विशां पतिमतिथिमुषर्बुधमृञ्जसे गर्भ इव य उ दिवो जनुषा सुवेतीत् कच्चिद्यच्छुचिरच्युतं वस्तु ज्योगत्ति वो गिरा चिदाऽऽजानाति स विद्वान् भवति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) (उ) वितर्के (सु) शोभने (वः) युष्माकम् (अतिथिम्) अतिथिमिव वर्त्तमानम् (उषर्बुधम्) य उषसि बोधयति तम् (विश्वासाम्) सर्वासाम् (विशाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (पतिम्) पालकम् (ऋञ्जसे) प्रसाध्नोषि (गिरा) वाचा (वेति) व्याप्नोति (इत्) एव (दिवः) दिवसस्य पदार्थबोधस्य (जनुषा) जन्मना (कत्) कदापि (चित्) अपि (आ) (शुचिः) पवित्रः (ज्योक्) निरन्तरम् (चित्) अपि (अत्ति) भुङ्क्ते (गर्भः) अन्तःस्थ (यत्) (अच्युतम्) नाशरहितम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथाऽतिथिः पूजनीयोऽस्ति तथैव पदार्थविद्यावित्सत्कर्त्तव्योऽस्ति ये सर्वान्तःस्थं नित्यं विद्युज्ज्योतिर्जानन्ति तेऽभीप्सितं सुखं लभन्ते ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, विद्वान, ईश्वर व गृहस्थांच्या कार्याचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसा अतिथी सत्कार करण्यायोग्य असतो तसेच पदार्थविद्या जाणणारा सत्कार करण्यायोग्य असतो. जे सर्वांच्या अन्तःस्थ नित्य विद्युतला जाणतात त्यांना इच्छित सुख प्राप्त होते. ॥ १ ॥