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अ॒ग्निर॒प्सामृ॑ती॒षहं॑ वी॒रं द॑दाति॒ सत्प॑तिम्। यस्य॒ त्रस॑न्ति॒ शव॑सः सं॒चक्षि॒ शत्र॑वो भि॒या ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir apsām ṛtīṣahaṁ vīraṁ dadāti satpatim | yasya trasanti śavasaḥ saṁcakṣi śatravo bhiyā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। अ॒प्साम्। ऋ॒ति॒ऽसह॑म्। वी॒रम्। द॒दा॒ति॒। सत्ऽप॑तिम्। यस्य॑। त्रस॑न्ति। शव॑सः। स॒म्ऽचक्षि॑। शत्र॑वः। भि॒या ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:14» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उत्तम मनुष्य क्या करता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसके (शवसः) बल से (सञ्चक्षि) सम्मुख (भिया) भय से (शत्रवः) शत्रुजन (त्रसन्ति) व्याकुल होते हैं वह (अग्निः) बड़ा बलिष्ठ वीर पुरुष (अप्साम्) श्रेष्ठ कर्म्मों के विभाग करने और (ऋतीषहम्) दूसरे के पदार्थों के प्राप्त करानेवाले शत्रुओं को सहनकर्त्ता (सत्पतिम्) श्रेष्ठों के पालक (वीरम्) वीर पुरुष को (ददाति) देता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय और विद्वान् होकर शरीर और आत्मा के सामर्थ्य को नहीं दूर करते हैं, उनसे शत्रुजन डर के भागते हैं अथवा वश को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुत्तमो मनुष्यः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य शवसः सञ्चक्षि भिया शत्रवस्त्रसन्ति सोऽग्निरप्सामृतीषहं सत्पतिं वीरं ददाति ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) महाबलिष्ठो वीरपुरुषः (अप्साम्) सत्कर्म्मणां विभक्तारम् (ऋतीषहम्) य ऋतीन् परपदार्थप्रापकाञ्छत्रून्त्सहते। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वीरम्) शूरपुरुषम् (ददाति) (सत्पतिम्) सतां पालकम् (यस्य) (त्रसन्ति) उद्विजन्ति (शवसः) बलात् (सञ्चक्षि) समक्षे (शत्रवः) (भिया) भयेन ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये ब्रह्मचारिणो जितेन्द्रिया विद्वांसो भूत्वा शरीरात्मसामर्थ्यं नापनयन्ति तेभ्योऽरयो भीत्वा पलायन्तेऽथवा वशमाप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय व विद्वान बनून शरीर व आत्म्याचे सामर्थ्य नष्ट करीत नाहीत त्यांना शत्रू घाबरून पळतात किंवा वश होतात. ॥ ४ ॥