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अ॒ग्ना यो मर्त्यो॒ दुवो॒ धियं॑ जु॒जोष॑ धी॒तिभिः॑। भस॒न्नु ष प्र पू॒र्व्य इषं॑ वुरी॒ताव॑से ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnā yo martyo duvo dhiyaṁ jujoṣa dhītibhiḥ | bhasan nu ṣa pra pūrvya iṣaṁ vurītāvase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्ना। यः। मर्त्यः॑। दुवः॑। धिय॑म्। जु॒जोष॑। धी॒तिऽभिः॑। भस॑त्। नु। सः। प्र। पू॒र्व्यः। इष॑म्। वु॒री॒त॒। अव॑से ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:14» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अबः छः ऋचावाले चौदहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (धीतिभिः) अंगुली आदि अवयवों से (अग्ना) अग्नि में (दुवः) सेवन और (धियम्) बुद्धि वा कर्म्म का (जुजोष) सेवन करता है और (अवसे) रक्षण आदि के लिये (पूर्व्यः) पूर्वजनों से प्रकाशित किया गया (प्र, भसत्) प्रकाशित होवे और (इषम्) अन्न वा विज्ञान की (नु) शीघ्र (वुरीत) स्वीकार करे (सः) वह भाग्यशाली होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आलस्य आदि दोषों का त्याग कर धर्म्म से पुरुषार्थ करते हैं, वे सम्पूर्ण इष्ट सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यो मर्त्यो धीतिभिरग्ना दुवो धियं जुजोषाऽवसे पूर्व्यः प्र भसदिषं नु वुरीत स भाग्यशाली भवति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ना) अग्नौ (यः) (मर्त्यः) मनुष्यः (दुवः) परिचरणम् (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (जुजोष) (धीतिभिः) अङ्गुल्याद्यवयैः (भसत्) प्रकाशेत (नु) सद्यः (सः) (प्र) (पूर्व्यः) पूर्वैर्निष्पादितः (इषम्) अन्नं विज्ञानं वा (वुरीत) स्वीकुर्य्यात् (अवसे) रक्षणाद्याय ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या आलस्यादिदोषान् विहाय धर्मेण पुरुषार्थं कुर्वन्ति ते सर्वमिष्टं सुखं लभन्ते ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे आळस इत्यादी दोषांचा परित्याग करून धर्मयुक्त पुरुषार्थ करतात ती संपूर्ण इष्ट सुख प्राप्त करतात. ॥ १ ॥