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त्वं भगो॑ न॒ आ हि रत्न॑मि॒षे परि॑ज्मेव क्षयसि द॒स्मव॑र्चाः। अग्ने॑ मि॒त्रो न बृ॑ह॒त ऋ॒तस्याऽसि॑ क्ष॒त्ता वा॒मस्य॑ देव॒ भूरेः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam bhago na ā hi ratnam iṣe parijmeva kṣayasi dasmavarcāḥ | agne mitro na bṛhata ṛtasyāsi kṣattā vāmasya deva bhūreḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। भगः॑। नः॒। आ। हि। रत्न॑म्। इ॒षे। परि॑ज्माऽइव। क्ष॒य॒सि॒। द॒स्मऽव॑र्चाः। अग्ने॑। मि॒त्रः। न। बृ॒ह॒तः। ऋ॒तस्य। असि॑। क्ष॒त्ता। वा॒मस्य॑। दे॒व॒। भूरेः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:13» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को इस संसार में कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) देनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! जिस कारण से (त्वम्) आप (मित्रः) (न) जैसे वैसे (बृहतः) बड़े (वामस्य) श्रेष्ठ (भूरेः) बहुत (ऋतस्य) सत्य वा जल के (क्षत्ता) छेदक (असि) हैं, इस कारण से (दस्मवर्चाः) उपक्षयित अर्थात् निवास कराई वा निवास की कान्ति जिन्होंने तथा (परिज्मेव) जो सब ओर से चलनेवाले वायु के सदृश (भगः) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य्य जिनका ऐसे हुए (नः) हम लोगों को (हि) जिस कारण से (रत्नम्) धन को (इषे) प्राप्त होने को (आ) सब ओर से (क्षयसि) निवास करते वा निवास कराते हो, इस कारण आदर करने योग्य हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन प्राणों के सदृश धन और ऐश्वर्य्य की शोभा को धारण करते हैं, वे मित्र के सदृश वर्त्ताव करके सब को सुखी करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिरत्र कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे देवाग्ने ! यतस्त्वं मित्रो न बृहतो वामस्य भूरेर्ऋतस्य क्षत्ताऽसि तस्माद्दस्मवर्चाः स त्वं परिज्मेव भगः सन् नो हि रत्नमिष आ क्षयसि तस्मान्माननीयोऽसि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (भगः) भजनीयैश्वर्यः (नः) अस्मान् (आ) (हि) (रत्नम्) धनम् (इषे) प्राप्तुम् (परिज्मेव) परितः सर्वन्तो गन्ता वायुरिव (क्षयसि) निवससि निवासयसि वा (दस्मवर्चाः) दस्ममुपक्षयितं निवासयितं निवासितं वर्चो दीप्तिर्येन सः (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (मित्रः) सखा (न) इव (बृहतः) महतः (ऋतस्य) सत्यस्योदकस्य वा (असि) (क्षत्ता) छेदकः (वामस्य) प्रशस्यस्य (देव) दातर्विद्वन् (भूरेः) बहोः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः प्राणवद्धनैश्वर्य्यशोभां दधति ते मित्रवद्वर्त्तित्वा सर्वान्त्सुखयन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान प्राणाप्रमाणे धन व ऐश्वर्य बाळगतात त्यांनी मित्राप्रमाणे वागून सर्वांना सुखी करावे. ॥ २ ॥